बुधवार, 18 मार्च 2015

पण्डित सुन्दरलाल

स्वाधीनता का गौरव ग्रन्थ

भारत की स्वतन्त्रता का श्रेय उन कुछ साहसी लेखकों को भी है, जिन्होंने प्राणों की चिन्ता किये बिना सत्य इतिहास लिखा। ऐसे ही एक लेखक थे पण्डित सुन्दरलाल, जिनकी पुस्तक ‘भारत में अंग्रेजी राज’ ने सत्याग्रह या बम-गोली द्वारा अंग्रेजों से लड़ने वालों को सदा प्रेरणा दी।

1857 के स्वतन्त्रता संग्राम को दबाने के बाद अंग्रेजों ने योजनाबद्ध रूप से हिन्दू और मुस्लिमों में मतभेद पैदा किया। ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के अन्र्तगत उन्होंने बंगाल का विभाजन कर दिया।

पंडित सुंदरलाल ने इस विद्वेष की जड़ तक पहुँचने के लिए प्रामाणिक दस्तावेजों तथा इतिहास का गहन अध्ययन किया। उनके सामने अनेक तथ्य खुलते चले गये। इसके बाद वे तीन साल तक क्रान्तिकारी बाबू नित्यानन्द चटर्जी के घर पर शान्त भाव से काम में लगे रहे। इसी साधना के फलस्वरूप 1,000 पृष्ठों का ‘भारत में अंग्रेजी राज’ नामक ग्रन्थ तैयार हुआ।

इसकी विशेषता यह थी कि इसे सुंदरलाल जी ने स्वयं नहीं लिखा। वे बोलते थे और प्रयाग के श्री विशम्भर पांडे इसे लिखते थे। इस प्रकार इसकी पांडुलिपि तैयार हुई; पर इसका प्रकाशन आसान नहीं था। सुंदरलाल जी जानते थे कि प्रकाशित होते ही शासन इसे जब्त कर लेगा। अतः उन्होंने इसे कई खंडों में बाँटकर अलग-अलग नगरों में छपवाया। तैयार खंडों को प्रयाग में जोड़ा गया और अन्ततः 18 मार्च, 1928 को पुस्तक प्रकाशित हो गयी।

पहला संस्करण 2,000 प्रतियों का था। 1,700 प्रतियाँ तीन दिन के अन्दर ही ग्राहकों तक पहुँचा दी गयीं। शेष 300 प्रतियाँ डाक या रेल द्वारा भेजी जा रही थीं; पर इसी बीच अंग्रेजों ने 22 मार्च को प्रतिबन्धित घोषित कर इन्हें जब्त कर लिया। जो 1,700 पुस्तकें जा चुकी थीं, शासन ने उन्हें भी ढूँढने का प्रयास किया; पर उसे आंशिक सफलता ही मिली।

इस प्रतिबन्ध के विरुद्ध देश भर के नेताओं और समाचार पत्रों ने आवाज उठायी। गान्धी जी ने भी इसे पढ़कर अपने पत्र ‘यंग इंडिया’ में इसके पक्ष में लेख लिखा। सत्याग्रह करने वाले इसे जेल ले गये। वहाँ हजारों लोगों ने इसे पढ़ा। इस प्रकार पूरे देश में इसकी चर्चा हो गयी। दूसरी ओर सुन्दरलाल जी प्रतिबन्ध के विरुद्ध न्यायालय में चले गये। उनके वकील तेजबहादुर सप्रू ने तर्क दिया कि इसमें एक भी तथ्य असत्य नहीं है। सरकारी वकील ने कहा कि यह इसीलिए अधिक खतरनाक है।

इस पर सुन्दरलाल जी ने संयुक्त प्रान्त की सरकार को लिखा। गर्वनर शुरू में तो राजी नहीं हुए; पर 15 नवम्बर, 1937 को उन्होंने प्रतिबन्ध हटा लिया। इसके बाद अन्य प्रान्तों में भी प्रतिबन्ध हट गया। अब नये संस्करण की तैयारी की गयी। चर्चित पुस्तक होने के कारण अब कई लोग इसे छापना चाहते थे; पर सुन्दरलाल जी ने कहा कि वे इसे वहीं छपवायेंगे, जहाँ से यह कम दाम में छप सके। ओंकार प्रेस, प्रयाग ने इसे केवल सात रु0 मूल्य में छापा। इस संस्करण के छपने से पहले ही 10,000 प्रतियों के आदेश मिल गये थे। प्रकाशन जगत में ऐसे उदाहरण कम ही हैं।

भारत की स्वाधीनता के इस गौरव ग्रन्थ का तीसरा संस्करण 1960 में भारत सरकार ने प्रकाशित किया। अब भी हर तीन-चार साल बाद इसका नया संस्करण प्रकाशित हो रहा है।

पण्डित सुन्दरलाल

स्वाधीनता का गौरव ग्रन्थ

भारत की स्वतन्त्रता का श्रेय उन कुछ साहसी लेखकों को भी है, जिन्होंने प्राणों की चिन्ता किये बिना सत्य इतिहास लिखा। ऐसे ही एक लेखक थे पण्डित सुन्दरलाल, जिनकी पुस्तक ‘भारत में अंग्रेजी राज’ ने सत्याग्रह या बम-गोली द्वारा अंग्रेजों से लड़ने वालों को सदा प्रेरणा दी।

1857 के स्वतन्त्रता संग्राम को दबाने के बाद अंग्रेजों ने योजनाबद्ध रूप से हिन्दू और मुस्लिमों में मतभेद पैदा किया। ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के अन्र्तगत उन्होंने बंगाल का विभाजन कर दिया।

पंडित सुंदरलाल ने इस विद्वेष की जड़ तक पहुँचने के लिए प्रामाणिक दस्तावेजों तथा इतिहास का गहन अध्ययन किया। उनके सामने अनेक तथ्य खुलते चले गये। इसके बाद वे तीन साल तक क्रान्तिकारी बाबू नित्यानन्द चटर्जी के घर पर शान्त भाव से काम में लगे रहे। इसी साधना के फलस्वरूप 1,000 पृष्ठों का ‘भारत में अंग्रेजी राज’ नामक ग्रन्थ तैयार हुआ।

इसकी विशेषता यह थी कि इसे सुंदरलाल जी ने स्वयं नहीं लिखा। वे बोलते थे और प्रयाग के श्री विशम्भर पांडे इसे लिखते थे। इस प्रकार इसकी पांडुलिपि तैयार हुई; पर इसका प्रकाशन आसान नहीं था। सुंदरलाल जी जानते थे कि प्रकाशित होते ही शासन इसे जब्त कर लेगा। अतः उन्होंने इसे कई खंडों में बाँटकर अलग-अलग नगरों में छपवाया। तैयार खंडों को प्रयाग में जोड़ा गया और अन्ततः 18 मार्च, 1928 को पुस्तक प्रकाशित हो गयी।

पहला संस्करण 2,000 प्रतियों का था। 1,700 प्रतियाँ तीन दिन के अन्दर ही ग्राहकों तक पहुँचा दी गयीं। शेष 300 प्रतियाँ डाक या रेल द्वारा भेजी जा रही थीं; पर इसी बीच अंग्रेजों ने 22 मार्च को प्रतिबन्धित घोषित कर इन्हें जब्त कर लिया। जो 1,700 पुस्तकें जा चुकी थीं, शासन ने उन्हें भी ढूँढने का प्रयास किया; पर उसे आंशिक सफलता ही मिली।

इस प्रतिबन्ध के विरुद्ध देश भर के नेताओं और समाचार पत्रों ने आवाज उठायी। गान्धी जी ने भी इसे पढ़कर अपने पत्र ‘यंग इंडिया’ में इसके पक्ष में लेख लिखा। सत्याग्रह करने वाले इसे जेल ले गये। वहाँ हजारों लोगों ने इसे पढ़ा। इस प्रकार पूरे देश में इसकी चर्चा हो गयी। दूसरी ओर सुन्दरलाल जी प्रतिबन्ध के विरुद्ध न्यायालय में चले गये। उनके वकील तेजबहादुर सप्रू ने तर्क दिया कि इसमें एक भी तथ्य असत्य नहीं है। सरकारी वकील ने कहा कि यह इसीलिए अधिक खतरनाक है।

इस पर सुन्दरलाल जी ने संयुक्त प्रान्त की सरकार को लिखा। गर्वनर शुरू में तो राजी नहीं हुए; पर 15 नवम्बर, 1937 को उन्होंने प्रतिबन्ध हटा लिया। इसके बाद अन्य प्रान्तों में भी प्रतिबन्ध हट गया। अब नये संस्करण की तैयारी की गयी। चर्चित पुस्तक होने के कारण अब कई लोग इसे छापना चाहते थे; पर सुन्दरलाल जी ने कहा कि वे इसे वहीं छपवायेंगे, जहाँ से यह कम दाम में छप सके। ओंकार प्रेस, प्रयाग ने इसे केवल सात रु0 मूल्य में छापा। इस संस्करण के छपने से पहले ही 10,000 प्रतियों के आदेश मिल गये थे। प्रकाशन जगत में ऐसे उदाहरण कम ही हैं।

भारत की स्वाधीनता के इस गौरव ग्रन्थ का तीसरा संस्करण 1960 में भारत सरकार ने प्रकाशित किया। अब भी हर तीन-चार साल बाद इसका नया संस्करण प्रकाशित हो रहा है।

मंगलवार, 17 मार्च 2015

ज्ञानसिंह बिष्ट

आजाद हिन्द फौज के सेनानी लेफ्टिनेंट ज्ञानसिंह बिष्ट

द्वितीय विश्व युद्ध में अंग्रेजों एवं मित्र देशों की सामरिक शक्ति अधिक होने पर भी आजाद हिन्द फौज के सेनानी उन्हें कड़ी टक्कर दे रहे थे। लेफ्टिनेंट ज्ञानसिंह बिष्ट भी ऐसे ही एक सेनानायक थे, जिन्होंने अपने से छह गुना बड़ी अंग्रेज टुकड़ी को भागने पर मजबूर कर दिया।

16 मार्च, 1945 को ‘सादे पहाड़ी के युद्ध’ में भारतीय सेना की ए कंपनी ने कैप्टेन खान मोहम्मद के नेतृत्व में अंग्रेजों को पराजित किया था। इससे चिढ़कर अंग्रेजों ने अगले दिन आजाद हिन्द फौज की बी कंपनी पर हमला करने की योजना बनाई।

सिंगापुर के आॅफिसर्स टेªनिंग स्कूल में प्रशिक्षित लेफ्टिनेंट ज्ञानसिंह बिष्ट इस कंपनी के नायक थे। वे बहुत साहसी तथा अपनी कंपनी में लोकप्रिय थे। वे अपने सैनिकों से प्रायः कहते थे कि मैं सबके साथ युद्ध के मैदान में ही लड़ते-लड़ते मरना चाहता हूं।

यह बी कंपनी सामरिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण स्थान पर तैनात थी। तीन सड़कों के संगम वाले इस मार्ग के पास एक पहाड़ी थी, जिस पर शत्रुओं की तोपें लगी थीं। बी कंपनी में केवल 98 जवान थे। उनके पास राइफल और कुछ टैंक विध्वंसक बम ही थे; पर लेफ्टिनेंट बिष्ट का आदेश था कि किसी भी कीमत पर शत्रु को इस मार्ग पर कब्जा नहीं करने देना है।

17 मार्च, 1945 को प्रातः होते ही अंग्रेजों ने अपनी तोपों के मुंह खोल दिये। उसकी आड़ में वे अपनी बख्तरबंद गाडि़यों में बैठकर आगे बढ़ रहे थे। खाइयों में मोर्चा लिये भारतीय सैनिकों को मौत की नींद सुलाने के लिए वे लगातार गोले भी बरसा रहे थे। साढ़े बारह बजे आगे बढ़ती हुई अंग्रेज सेना दो भागों में बंट गयी।

एक ने ए कंपनी पर हमला बोला और दूसरी ने बी कंपनी पर। बी कंपनी के सैनिक भी गोली चला रहे थे; पर टैंक और बख्तरबंद गाडि़यों पर उनका कोई असर नहीं हो रहा था। लेफ्टिनेंट बिष्ट के पास अपने मुख्यालय पर संदेश भेजने का कोई संचार साधन भी नहीं था।

जब लेफ्टिनेंट बिष्ट ने देखा कि अंग्रेजों के टैंक उन्हें कुचलने पर तुले हैं, तो उन्होंने कुछ बम फेंके; पर दुर्भाग्यवश वे भी नहीं फटे। यह देखकर उन्होंने सब साथियों को आदेश दिया कि वे खाइयों को छोड़कर बाहर निकलें और शत्रुओं को मारते हुए ही मृत्यु का वरण करें।

सबसे आगे लेफ्टिनेंट बिष्ट को देखकर सब जवानों ने उनका अनुसरण किया। ‘भारत माता की जय’ और ‘नेता जी अमर रहें’ का उद्घोष कर वे समरांगण में कूद पड़े। टैंकों के पीछे अंग्रेज सेना की पैदल टुकडि़यां थीं। भारतीय सैनिक उन्हें घेर कर मारने लगे। कुछ सैनिकों ने टैंकों और बख्तरबंद गाडि़यों पर भी हमला कर दिया।

दो घंटे तक हुए आमने-सामने के युद्ध में 40 भारतीय जवानों नेे प्राणाहुति दी; पर उनसे चैगुने शत्रु मारे गये। अपनी सेना को तेजी से घटते देख अंग्रेज भाग खड़े हुए। लेफ्टिनेंट बिष्ट उन्हें पूरी तरह खदेड़ने के लिए अपने शेष सैनिकों को एकत्र करने लगे। वे इस मोर्चे को पूरी तरह जीतना चाहते थे। तभी शत्रु पक्ष की एक गोली उनके माथे में लगी। जयहिंद का नारा लगाते हुए वे वहीं गिर पड़े और तत्काल ही उनका प्राणांत हो गया।

लेफ्टिनेंट बिष्ट के इस बलिदान से उनके सैनिक उत्तेजित होकर गोलियां बरसाते हुए शत्रुओं का पीछा करने लगे। अंग्रेज सैनिक डरकर उस मोर्चे को ही छोड़ गये और फिर लौटकर नहीं आये। लेफ्टिनेंट बिष्ट ने बलिदान देकर जहां उस महत्वपूर्ण सामरिक केन्द्र की रक्षा की, वहीं उन्होंने सैनिकों के साथ लड़ते हुए मरने का अपना संकल्प भी पूरा कर दिखाया।

(संदर्भ : क्रांतिकारी कोश)

शनिवार, 14 मार्च 2015

भगवान श्री राम जी के वंश

चलो आज आपको भगवान श्री राम जी के वंश के बारे में बताता हूं ।।
    ब्रह्माजी की उन्चालिसवी पीढ़ी में भगवाम श्रीराम का जन्म हुआ था ।।
        हिंदू धर्म में श्री राम को श्रीहरि विष्णु का सातवाँ अवतार माना जाता है।
वैवस्वत मनु के दस पुत्र थे - इल, इक्ष्वाकु, कुशनाम, अरिष्ट, धृष्ट, नरिष्यन्त,करुष, महाबली, शर्याति और पृषध।
श्री राम का जन्म इक्ष्वाकु के कुल में हुआ था और जैन धर्म के तीर्थंकर निमि भी इसी कुल के थे।
मनु के दूसरे पुत्र इक्ष्वाकु से विकुक्षि,
निमि और दण्डक पुत्र उत्पन्न हुए।
इस तरह से यह वंश परम्परा चलते-चलते
हरिश्चन्द्र, रोहित, वृष, बाहु और सगरतक पहुँची।
इक्ष्वाकु प्राचीन कौशल देश के राजा थे और इनकी राजधानी अयोध्या थी।
रामायण के बालकांड में गुरु वशिष्ठजी द्वारा राम के कुल का वर्णन किया गया है जो इस प्रकार है ..........
१ - ब्रह्माजी से मरीचि हुए।
२ - मरीचि के पुत्र कश्यप हुए।
३ - कश्यप के पुत्र विवस्वान थे।
४ - विवस्वान के वैवस्वत मनु हुए.वैवस्वत मनु के समय जल प्रलय हुआ था।
५ - वैवस्वतमनु के दस पुत्रों में से एक का नाम इक्ष्वाकु था।
इक्ष्वाकु ने अयोध्या को अपनी राजधानी बनाया और इस प्रकार इक्ष्वाकु कुलकी स्थापना की।
६ - इक्ष्वाकु के पुत्र कुक्षि हुए।
७ - कुक्षि के पुत्र का नाम विकुक्षि था।
८ - विकुक्षि के पुत्र बाण हुए।
९ - बाण के पुत्र अनरण्य हुए।
१०- अनरण्य से पृथु हुए
११- पृथु से त्रिशंकु का जन्म हुआ।
१२- त्रिशंकु के पुत्र धुंधुमार हुए।
१३- धुन्धुमार के पुत्र का नाम युवनाश्व था।
१४- युवनाश्व के पुत्र मान्धाता हुए।
१५- मान्धाता से सुसन्धि का जन्म हुआ।
१६- सुसन्धि के दो पुत्र हुए- ध्रुवसन्धि एवं प्रसेनजित।
१७- ध्रुवसन्धि के पुत्र भरत हुए।
१८- भरत के पुत्र असित हुए।
१९- असित के पुत्र सगर हुए।
२०- सगर के पुत्र का नाम असमंज था।
२१- असमंज के पुत्र अंशुमान हुए।
२२- अंशुमान के पुत्र दिलीप हुए।
२३- दिलीप के पुत्र भगीरथ हुए।
     भागीरथ ने ही गंगा को पृथ्वी पर उतारा था.भागीरथ के पुत्र ककुत्स्थ थे।
२४- ककुत्स्थ के पुत्र रघु हुए।
        रघु के अत्यंत तेजस्वी और पराक्रमी नरेश होने के कारण उनके बाद इस वंश का नाम रघुवंश हो गया,तब से श्री राम के कुल को रघु कुल भी कहा जाता है।
२५- रघु के पुत्र प्रवृद्ध हुए।
२६- प्रवृद्ध के पुत्र शंखण थे।
२७- शंखण के पुत्र सुदर्शन हुए।
२८- सुदर्शन के पुत्र का नाम अग्निवर्ण था।
२९- अग्निवर्ण के पुत्र शीघ्रग हुए।
३०- शीघ्रग के पुत्र मरु हुए।
३१- मरु के पुत्र प्रशुश्रुक थे।
३२- प्रशुश्रुक के पुत्र अम्बरीष हुए।
३३- अम्बरीष के पुत्र का नाम नहुष था।
३४- नहुष के पुत्र ययाति हुए।
३५- ययाति के पुत्र नाभाग हुए।
३६- नाभाग के पुत्र का नाम अज था।
३७- अज के पुत्र दशरथ हुए।
३८- दशरथ के चार पुत्र राम, भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न हुए।
इस प्रकार ब्रह्मा की उन्चालिसवी (39) पीढ़ी में श्रीराम का जन्म हुआ.....
श्री राम चंद्र कृपालु भजमन हरण भाव भय दारुणम्।
नवकंज लोचन कंज मुखकर, कंज पद कन्जारुणम।
कंदर्प अगणित अमित छवी नव नील नीरज सुन्दरम। पट्पीत मानहु तडित रूचि शुचि नौमी जनक सुतावरम।
भजु दीन बंधू दिनेश दानव दैत्य वंश निकंदनम।
रघुनंद आनंद कंद कौशल चंद दशरथ नन्दनम ।
सिर मुकुट कुण्डल तिलक चारु उदारू अंग विभुषणं।
आजानु भुज शर चाप धर संग्राम जित खर - धुषणं।
इति वदति तुलसीदास शंकर शेष मुनि मन रंजनम।
मम हृदय कुंज निवास कुरु कामादी खल दल गंजनम।
मनु जाहिं राचेऊ मिलिहि सो बरु सहज  सावरों।
करुना निधान सुजान सिलू सनेहू जानत रावरो।
एही भाँती गौरी असीस सुनी सिय सहित हिय हरषी अली।
तुलसी भवानी पूजी पूनी पूनी मुदित मन मन्दिर चली।
जानी गौरी अनुकूल सिय हिय हरषु न जाए कहीं।
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फ़र्क़न लगे।
जानि गौरी अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।
मंजुल मंगल मूल वाम अंग फरकन लगे ।

इसीलिये कहते हैं श्री राम से बड़ा राम का नाम
नोट : - इस मेसेज को अपने बच्चों को बार बार पढ़वाये और उन्हे हिन्दू धर्म की महता के बारे में समझायें ।।
बोलिये
सियावर रामचन्द्र की जय
अयोध्या धाम की जय
गौमाता की जय
बृजधाम की जय

मंगलवार, 10 मार्च 2015

महाराणा प्रताप के हाथी की कहानी


मित्रो आप सब ने महाराणा प्रताप के घोंड़े चेतक के बारे
में तो सुना ही होगा, लेकिन उनका एक हाथी था।
जिसका नाम था रामप्रसाद उसके बारे में
आपको कुछ बाते बताता हु।
रामप्रसाद हाथी का उल्लेख अल बदायुनी ने
जो मुगलों की ओर से हल्दीघाटी के युद्ध में लड़ा था ने
अपने एक ग्रन्थ में कीया है। वो लिखता है की जब
महाराणा पर अकबर ने चढाई की थी तब उसने
दो चीजो की ही बंदी बनाने की मांग की थी एक तो खुद
महाराणा और दूसरा उनका हाथी रामप्रसाद।
आगे अल बदायुनी लिखता है की वो हाथी इतना समजदार
व ताकतवर था की उसने हल्दीघाटी के युद्ध में
अकेली ही अकबर के 13 हाथियों को मार गिराया था और
वो लिखता है : उस हाथी को पकड़ने के लिए हमने 7
हाथियों का एक चक्रव्यू बनाया और उन पर 14
महावतो को बिठाया तब कही जाके उसे बंदी बना पाये।
अब सुनिए एक भारतीय जानवर
की स्वामी भक्ति।
उस हाथी को अकबर के समक्ष पेश
किया गया जहा अकबर ने उसका नाम पीरप्रसाद रखा।
रामप्रसाद को मुगलों ने गन्ने और पानी दिया। पर उस
स्वामिभक्त हाथी ने 18 दिन तक मुगलों का न
दाना खाया और न पानी पीया और वो शहीद हो गया
तब अकबर ने कहा था कि - जिसके हाथी को मै मेरे
सामने नहीं झुका पाया उस महाराणा प्रताप
को क्या झुका पाउँगा।
ऐसे ऐसे देशभक्त चेतक व रामप्रसाद जैसे
तो यहाँ जानवर थे। इसलिए मित्रो हमेशा अपने भारतीय
होने पे गर्व करो।

शुक्रवार, 6 मार्च 2015

वीर भूमि मेवाड़

यह वीर प्रस्विनी वीर भूमि क्षत्रियो की सरजमी है,
पद्मिनी,हाडा रानी की,यह प्यारी मातृभूमि है,

प्रताप की कर्मभूमि,गोरा बादल का प्यारा वतन है,
शूरवीर महाराणा सांगा,सिंह रतन सैम हुआ रतन है,

मिटटी के कण-कण में यहाँ,वीरो की हुई रवानी है,
यह पुण्य दिव्यभूमि,वीरता की अमर निशानी है,

जहाँ स्वाभिमान पे चली कटारे,नित्य डंकाए बजती थी,
जौहर व्रत का हवन करने को,नितदिन चिताये सजती थी,

पवन के झोको में अब भी,लाशों की दुर्गन्ध आती है,
निर्मल समीर क्षत्रियो की,वीरता सन्देश सुनाती है,

जहाँ की सुकोमल सुंदरियां,विहंसते जल मरी चिता में,
कभी न लगने दी कालिमा,क्षत्रनियो ने नीज पवित्रता मे,

जहाँ वीरता नस-नस में भरी थी,बाल,वृद्ध व तरुणों में,
काटकर शीश धर देते थे,भारत माँ के चरणों में,

जहाँ युगों युगों तक क्षत्रियो ने,कीर्ति पताका फहराई,
जिनके वीर रगों में शौर्य,व् शूरवीरता समाई,

शरणागतो के रक्षार्थ,चल पड़ते दहकते अंगारों पर,
अप्रतिम वीरता प्रदर्शित कर,लुट गए तीर तलवारो पर,

चलते सर पे कफ़न बांधकर,आजादी के परवाने थे,
चित्तोड़ उनका प्यारा था,वे मातृभूमि के दिवाने थे,

झाला ने किया त्याग यहाँ,पद्मिनी ने दिखाया जौहर को,
रानी हाडा ने शीश काट,थमा दिया अपने श्योहर को,

वीर हम्मीर,कुम्भा,चुंडा,जयमल ने अर्पण प्राण किया,
मुंजा,पत्ता,कल्ला,प्रताप ने अपना सबकुछ कुर्बान किया,

वीरो ने पूजा अर्चना की,अपने शीश व खुनो से,
माता की गोदे भर दी,शत्रुओ के शीश प्रसूनो से,

धन्य है वह धरती जिसने,जौहर में जलना सिखलाया,
जलते हुए अंगारों पर भी विहंसते चलना सिखलाया,

भारत की वह दिव्यभूमि,आज बना हमारा सम्बल है,
वीर बालक बादल के बलिदान से वह नित्य उज्वल है,

जय मेवाड़,जय हो चित्तोड़,सदा तुम्हारी जय-जय हो,
तेरी प्रेरणा दिव्य ज्योति से,भारत की सदा विजय हो।।

शूरवीर राजपूत योद्धाओ

शूरवीर राजपूत योद्धाओ के 11 महान सत्य अवश्य पढियेगा और अच्छे लगे तो शेयर किजिएगा.....

1. जयमाल मेड़तिया ने एक ही झटके में हाथी का सिर काट डाला था.
2. करौली के जादोन राजा अपने सिंहासन पर बैठते वक़्त अपने दोनो हाथ जिन्दा शेरो पर रखते थे.
3. जोधपुर के यशवंत सिंह के 12 साल के पुत्र पृथ्वी सिंह ने हाथो से औरंगजेब के खूंखार भूखे जंगली शेर का जबड़ा फाड़ डाला था.
4. राणा सांगा के शरीर पर छोटे-बड़े 80 घाव थे, युद्धों में घायल होने के कारण उनके एक हाथ नही था एक पैर नही था, एक आँख नहीं थी उन्होंने अपने जीवन-काल में 100 से भी अधिक युद्ध लड़े थे
5. एक राजपूत वीर जुंझार जो मुगलो से लड़ते वक्त शीश कटने के बाद भी घंटो लड़ते रहे आज उनका सिर बाड़मेर में है, जहा छोटा मंदिर हैं
और धड़ पाकिस्तान में है.
6. रायमलोत कल्ला का धड़ शीश कटने के बाद लड़ता-लड़ता घोड़े पर पत्नी रानी के पास पहुंच गया था तब रानी ने गंगाजल के छींटे डाले तब धड़ शांत हुआ उसके बाद रानी पति कि चिता पर बैठकर सती हो गयी थी.
7. चित्तोड़ में अकबर से हुए युद्ध में जयमाल राठौड़ पैर जख्मी होने कि वजह से कल्ला जी के कंधे पर बैठ कर युद्ध लड़े थे, ये देखकर सभी युद्ध-रत
साथियों को चतुर्भुज भगवान की याद आयी थी, जंग में दोनों के सर काटने के बाद भी धड़ लड़ते रहे और राजपूतो की फौज ने दुश्मन को मार गिराया अंत में अकबर ने उनकी वीरता से प्रभावित हो कर जैमल और पत्ता जी की मुर्तिया आगरा के किलें में लगवायी थी.
8. राजस्थान पाली में आउवा के ठाकुर खुशाल सिंह 1877 में अजमेर जा कर अंग्रेज अफसर का सर काट कर ले आये थे और उसका सर अपने किले के
बाहर लटकाया था तब से आज दिन तक उनकी याद में मेला लगता है.
9. महाराणा प्रताप के भाले का वजन 80 किलो था और कवच का वजन 80
किलो था और कवच, भाला, ढाल, और हाथ मे तलवार का वजन मिलाये तो 207 किलो था.
10. सलूम्बर के नवविवाहित रावत रतन सिंह चुण्डावत जी ने युद्ध जाते समय मोह-वश अपनी पत्नी हाड़ा रानी की कोई निशानी मांगी तो रानी ने सोचा ठाकुर युद्ध में मेरे मोह के कारण नही लड़ेंगे तब रानी ने निशानी के तौर पैर अपना सर काट के दे दिया था, अपनी पत्नी का कटा शीश गले में लटका औरंगजेब की सेना के साथ भयंकर युद्ध किया और वीरता पूर्वक लड़ते हुए अपनी मातृ भूमि के लिए शहीद हो गये थे.
11. हल्दी घाटी की लड़ाई में मेवाड़ से 20000 सैनिक थे और अकबर की और से 85000 सैनिक थे फिर भी अकबर की मुगल सेना पर राजपूत भारी पड़े थे.

वीर अमरसिंह

बीकानेर का राजकुमार वीर अमरसिंह

बीकानेर के राजा रायसिंहजी का भाई अमरसिंह किसी बात पर दिल्ली के बादशाह अकबर से नाराज हो बागी बन गया था और बादशाह के अधीन खालसा गांवों में लूटपाट करने लगा इसलिए उसे पकड़ने के लिए अकबर ने आरबखां को सेना के साथ जाने का हुक्म दिया | इस बात का पता जब अमरसिंह के बड़े भाई पृथ्वीराजसिंह जी को लगा तो वे अकबर के पास गए बोले-
" मेरा भाई अमर बादशाह से विमुख हुआ है आपके शासित गांवों में उसने लूटपाट की है उसकी तो उसको सजा मिलनी चाहिए पर एक बात है आपने जिन्हें उसे पकड़ने हेतु भेजा है वह उनसे कभी पकड़ में नहीं आएगा | ये पकड़ने जाने वाले मारे जायेंगे | ये पक्की बात है हजरत इसे गाँठ बांधलें |"
अकबर बोला- "पृथ्वीराज ! हम तुम्हारे भाई को जरुर पकड़कर दिखायेंगे |"
पृथ्वीराज ने फिर कहा- "जहाँपनाह ! वो मेरा भाई है उसे मैं अच्छी तरह से जानता हूँ वो हरगिज पकड़ में नहीं आएगा और पकड़ने वालों को मारेगा भी |

पृथ्वीराज के साथ इस तरह की बातचीत होने के बाद अकबर ने मीरहम्जा को तीन हजार घुड़सवारों के साथ आरबखां की मदद के लिए रवाना कर दिया | उधर पृथ्वीराजजी ने अपने भाई अमरसिंह को पत्र लिख भेजा कि- " भाई अमरसिंह ! मेरे और बादशाह के बीच वाद विवाद हो गया है | तेरे ऊपर बादशाह के सिपहसलार फ़ौज लेकर चढ़ने आ रहे है तुम इनको पकड़ना मत,इन्हें मार देना | और तूं तो जिन्दा कभी पकड़ने में आएगा नहीं ये मुझे भरोसा है | भाई मेरी बात रखना |"
ये वही पृथ्वीराज थे जो अकबर के खास प्रिय थे और जिन्होंने राणा प्रताप को अपने प्रण पर दृढ रहने हेतु दोहे लिखकर भेजे थे जिन्हें पढने के बाद महाराणा प्रताप ने अकबर के आगे कभी न झुकने का प्रण किया था | पृथ्वीराज जी का पत्र मिलते ही अमरसिंह ने अपने साथी २००० घुड़सवार राजपूत योद्धाओं को वह पत्र पढ़कर सुनाया,पत्र सुनने के बाद सभी ने अपनी मूंछों पर ताव देते हुए मरने मारने की कसम खाई कि- " मरेंगे या मरेंगे |"

अमरसिंह को अम्ल (अफीम) का नशा करने की आदत थी | नशा कर वे जब सो जाते थे तो उन्हें जगाने की किसी की हिम्मत नहीं होती थी कारण नशे में जगाने पर वे बिना देखे,सुने सीधे जगाने वाले के सिर पर तलवार की ठोक देते थे | उस दिन अमरसिंह अफीम के नशे में सो रहे थे कि अचानक आरबखां ने अपनी सेनासहित "हारणी खेड़ा" नामक गांव जिसमे अमरसिंह रहता था को घेर लिया पर अमरसिंह तो सो रहे थे उन्हें जगाने की किसी की हिम्मत नहीं हो रही थी ,कौन अपना सिर गंवाना चाहता | आखिर वहां रहने वाली एक चारण कन्या "पद्मा" जिसे अमरसिंह ने धर्म बहन बना रखा था ने अमरसिंह को जगाने का निर्णय लिया | पद्मा बहुत अच्छी कवियत्री थी | उसने अमरसिंह को संबोधित कर एक ऐसी वीर रस की कविता सुनाई जो कविता क्या कोई मन्त्र था,प्रेरणा का पुंज था,युद्ध का न्योता था | उसकी कविता का एक एक अक्षर एसा कि कायर भी सुन ले तो तलवार उठाकर युद्ध भूमि में चला जाए | कोई मृत योद्धा सुनले तो उठकर तलवार बजाने लग जाये |

पद्मा की कविता के बोलों ने अमरसिंह को नशे से उठा दिया | वे बोले - "बहन पद्मा ! क्या बादशाह की फ़ौज आ गयी है ?"
अमरसिंह तुरंत उठे ,शस्त्र संभाले,अपने सभी राजपूतों को अम्ल की मनुहार की | और घोड़े पर अपने साथियों सहित आरबखां पर टूट पड़े | उन्होंने देखा आरबखां धनुष लिए हाथी पर बैठा है और दुसरे ही क्षण उन्होंने अपना घोडा आरबखां के हाथी पर कूदा दिया , अमरसिंह के घोड़े के अगले दोनों पैर हाथी के दांतों पर थे अमरसिंह ने एक हाथ से तुरंत हाथी का होदा पकड़ा और दुसरे हाथ से आरबखां पर वार करने के उछला ही था कि पीछे से किसी मुग़ल सैनिक में अमरसिंह की कमर पर तलवार का एक जोरदार वार किया और उनकी कमर कट गयी पर धड़ उछल चूका था , अमरसिंह का कमर से निचे का धड़ उनके घोड़े पर रह गया और ऊपर का धड़ उछलकर सीधे आरबखां के हाथी के होदे में कूदता हुआ पहुंचा और एक ही झटके में आरबखां की गर्दन उड़ गयी |
पक्ष विपक्ष के लोगों ने देखा अमरसिंह का आधा धड़ घोड़े पर सवार है और आधा धड़ हाथी के होदे में पड़ा है और सबके मुंह से वाह वाह निकल पड़ा |
एक सन्देशवाहक ने जाकर बादशाह अकबर को सन्देश दिया -" जहाँपनाह ! अमरसिंह मारा गया और बादशाह सलामत की फ़ौज विजयी हुई |"
अकबर ने पृथ्वीराज की और देखते हुए कहा- " अमरसिंह को श्रधांजलि दो|"
पृथ्वीराज ने कहा - " अभी श्रधांजलि नहीं दूंगा, ये खबर पूरी नहीं है झूंठी है |"
तभी के दूसरा संदेशवाहक अकबर के दरबार में पहुंचा और उसने पूरा घटनाकर्म सुनाते हुए बताया कि- "कैसे अमरसिंह के शरीर के दो टुकड़े होने के बाद भी उसकी धड़ ने उछलकर आरबखां का वध कर दिया |"
अकबर चूँकि गुणग्राही था ,अमरसिंह की वीरता भरी मौत कीई कहानी सुनकर विचलित हुआ और बोल पड़ा - "अमरसिंह उड़ता शेर था ,पृथ्वीराज ! भाई पर तुझे जैसा गुमान था वह ठीक वैसा ही था ,अमरसिंह वाकई सच्चा वीर राजपूत था | काश वह हमसे रूठता नहीं |"
अमरसिंह की मौत पर पद्मा ने उनकी याद और वीरता पर दोहे बनाये -

आरब मारयो अमरसी,बड़ हत्थे वरियाम,
हठ कर खेड़े हांरणी,कमधज आयो काम |
कमर कटे उड़कै कमध, भमर हूएली भार,
आरब हण हौदे अमर, समर बजाई सार ||