गुरुवार, 13 अगस्त 2015

वीर शिरोमणि दुर्गा दास राठौड़

जिसने इस देश का पूर्ण इस्लामीकरण करने की औरंगजेब की साजिश को विफल कर हिन्दू धर्म की रक्षा की थी…..उस महान यौद्धा का नाम है वीर दुर्गादास राठौर…

समय – सोहलवीं – सतरवी शताब्दी
चित्र – वीर शिरोमणि दुर्गा दस राठौड़
स्थान – मारवाड़ राज्य

वीर दुर्गादास राठौड का जन्म मारवाड़ में करनोत ठाकुर आसकरण जी के घर सं. 1695 श्रावन शुक्ला चतुर्दसी को हुआ था। आसकरण जी मारवाड़ राज्य की सेना में जोधपुर नरेश महाराजा जसवंत सिंह जी की सेवा में थे ।अपने पिता की भांति बालक दुर्गादास में भी वीरता कूट कूट कर भरी थी,एक बार जोधपुर राज्य की सेना के ऊंटों को चराते हुए राईके (ऊंटों के चरवाहे) आसकरण जी के खेतों में घुस गए, बालक दुर्गादास के विरोध करने पर भी चरवाहों ने कोई ध्यान नहीं दिया तो वीर युवा दुर्गादास का खून खोल उठा और तलवार निकाल कर झट से ऊंट की गर्दन उड़ा दी,इसकी खबर जब महाराज जसवंत सिंह जी के पास पहुंची तो वे उस वीर बालक को देखने के लिए उतावले हो उठे व अपने सेनिकों को दुर्गादास को लेन का हुक्म दिया ।अपने दरबार में महाराज उस वीर बालक की निडरता व निर्भीकता देख अचंभित रह गए,आस्करण जी ने अपने पुत्र को इतना बड़ा अपराध निर्भीकता से स्वीकारते देखा तो वे सकपका गए। परिचय पूछने पर महाराज को मालूम हुवा की यह आस्करण जी का पुत्र है,तो महाराज ने दुर्गादास को अपने पास बुला कर पीठ थपथपाई और इनाम तलवार भेंट कर अपनी सेना में भर्ती कर लिया।

उस समय महाराजा जसवंत सिंह जी दिल्ली के मुग़ल बादशाह औरंगजेब की सेना में प्रधान सेनापति थे,फिर भी औरंगजेब की नियत जोधपुर राज्य के लिए अच्छी नहीं थी और वह हमेशा जोधपुर हड़पने के लिए मौके की तलाश में रहता था ।सं. 1731 में गुजरात में मुग़ल सल्तनत के खिलाफ विद्रोह को दबाने हेतु जसवंत सिंह जी को भेजा गया,इस विद्रोह को दबाने के बाद महाराजा जसवंत सिंह जी काबुल में पठानों के विद्रोह को दबाने हेतु चल दिए और दुर्गादास की सहायता से पठानों का विद्रोह शांत करने के साथ ही वीर गति को प्राप्त हो गए । उस समय उनके कोई पुत्र नहीं था और उनकी दोनों रानियाँ गर्भवती थी,दोनों ने एक एक पुत्र को जनम दिया,एक पुत्र की रास्ते में ही मौत हो गयी और दुसरे पुत्र अजित सिंह को रास्ते का कांटा समझ कर ओरंग्जेब ने अजित सिंह की हत्या की ठान ली,ओरंग्जेब की इस कुनियत को स्वामी भक्त दुर्गादास ने भांप लिया और मुकंदास की सहायता से स्वांग रचाकर अजित सिंह को दिल्ली से निकाल लाये व अजित सिंह की लालन पालन की समुचित व्यवस्था करने के साथ जोधपुर में गदी के लिए होने वाले ओरंग्जेब संचालित षड्यंत्रों के खिलाफ लोहा लेते अपने कर्तव्य पथ पर बदते रहे।

अजित सिंह के बड़े होने के बाद गद्दी पर बैठाने तक वीर दुर्गादास को जोधपुर राज्य की एकता व स्वतंत्रता के लिए दर दर की ठोकरें खानी पड़ी,ओरंग्जेब का बल व लालच दुर्गादास को नहीं डिगा सका जोधपुर की आजादी के लिए दुर्गादास ने कोई पच्चीस सालों तक सघर्ष किया,लेकिन जीवन के अन्तिम दिनों में दुर्गादास को मारवाड़ छोड़ना पड़ा । महाराज अजित सिंह के कुछ लोगों ने दुर्गादास के खिलाफ कान भर दिए थे जिससे महाराज दुर्गादास से अनमने रहने लगे वस्तु स्तिथि को भांप कर दुर्गादास ने मारवाड़ राज्य छोड़ना ही उचित समझा ।और वे मारवाड़ छोड़ कर उज्जेन चले गए वही शिप्रा नदी के किनारे उन्होने अपने जीवन के अन्तिम दिन गुजारे व वहीं उनका स्वर्गवास हुवा ।दुर्गादास हमारी आने वाली पिडियों के लिए वीरता, देशप्रेम, बलिदान व स्वामिभक्ति के प्रेरणा व आदर्श बने रहेंगे ।

१-मायाड ऐडा पुत जाण, जेड़ा दुर्गादास । भार मुंडासा धामियो, बिन थम्ब आकाश ।
२-घर घोड़ों, खग कामनी, हियो हाथ निज मीत सेलां बाटी सेकणी, श्याम धरम रण नीत ।
वीर दुर्गादास का निधन 22 नवम्बर, सन् 1718 में हुवा था इनका अन्तिम संस्कार शिप्रा नदी के तट पर किया गया था ।
“उनको न मुगलों का धन विचलित कर सका और न ही मुग़ल शक्ति उनके दृढ हृदये को पीछे हटा सकी। वह एक वीर था जिसमे राजपूती साहस व मुग़ल मंत्री सी कूटनीति थी ”

जिसने इस देश का पूर्ण इस्लामीकरण करने की औरंगजेब की साजिश को विफल कर हिन्दू धर्म की रक्षा की थी…..उस महान यौद्धा का नाम है वीर दुर्गादास राठौर…
इसी वीर दुर्गादास राठौर के बारे में रामा जाट ने कहा था कि “धम्मक धम्मक ढोल बाजे दे दे ठोर नगारां की,, जो आसे के घर दुर्गा नहीं होतो,सुन्नत हो जाती सारां की…….
आज भी मारवाड़ के गाँवों में लोग वीर दुर्गादास को याद करते है कि
“माई ऐहा पूत जण जेहा दुर्गादास, बांध मरुधरा राखियो बिन खंभा आकाश”
हिंदुत्व की रक्षा के लिए उनका स्वयं का कथन
“रुक बल एण हिन्दू धर्म राखियों”
अर्थात हिन्दू धर्म की रक्षा मैंने भाले की नोक से की…………
इनके बारे में कहा जाता है कि इन्होने सारी उम्र घोड़े की पीठ पर

शुक्रवार, 3 जुलाई 2015

एक षड्यंत्र ...  ,,शराब की घातकता

एक अनकही एतिहासिक घटना , एक षड्यंत्र ...  ,,शराब की घातकता ,,

कैसे हिन्दुओ की सुरक्षा प्राचीर को ध्वस्त किया मुगलो ने ?
जानिये और फिर से सुधार कीजिये ।।
मुगल बादशाह का दिल्ली में दरबार लगा था और हिंदुस्तान के दूर दूर के राजा महाराज दरबार में हाजिर थे , उसी दौरान मुगल बादशाह ने एक दम्भोक्ति की " है कोई हमसे बहादुर इस दुनिया में ?" सभा में सन्नाटा सा पसर गया , एक बार फिर वही दोहराया गया तीसरी बार फिर उसने ख़ुशी से चिल्ला कर कहा " है कोई हमसे बहादुर जो हिंदुस्तान पर सल्तनत कायम कर सके ?
सभा की खामोसी की तोड़ती एक बुलन्द शेर सी दहाड़ गूंजी तो सबका ध्यान उस शख्स की और गया , वो जोधपुर के महाराजा राव रिड़मल थे ।
रिड़मल जी ने कहा , मुगलो में बहादुरी नही कुटिलता है , सबसे बहादुर तो राजपूत है दुनिया में ,, मुगलो ने राजपूतो को आपस में लड़वा कर हिंदुस्तान पर राज किया , कभी सिसोदिया राणा वंश को कछावा जयपुर से तो कभी राठोड़ो को दूसरे राजपूतो से ,, ।
बादशाह का मुँह देखने लायक था , ऐसा लगा जेसे किसी ने चोरी करते रंगे हाथो पकड़ लिया हो ।
बाते मत करो राव , उद्धाहरण दो वीरता का । रिड़मल ने कहा "क्या किसी कौम में देखा है किसी को सिर कटने के बाद भी लड़ते हुए ?"
बादशाह बोला ये तो सुनी हुई बात है देखा तो नही , रिड़मल बोले इतिहास उठाकर देख लो कितने वीरो की कहानिया है सिर कटने के बाद भी लड़ने की ...
बादशाह हंसा और दरबार में बेठे कवियों की और देखकर बोला इतिहास लिखने वाले तो मंगते होते है में भी 100 मुगलो के नाम लिखवा दूँ इसमें क्या ? मुझे तो जिन्दा ऐसा राजपूत बताओ जो कहे की मेरा सिर काट दो में फिर भी लड़ूंगा ।
राव रिड़मल निरुत्तर हो गए और गहरे सोच में डूब गए ।
रात को सोचते सोचते अचानक उनको रोहणी ठिकाने के जागीदार का ख्याल आया ।
एक दिन अचानक रात को 11 बजे रोहणी ठिकाना (जो की जेतारण कस्बे जोधपुर रियासत) में दो घुड़सवार बुजुर्ग जागीदार के पोल पर पहुंचे और मिलने की इजाजत मांगी । ठाकुर साहब काफी वृद अवस्था में थे फिर भी उठ कर मेहमान की आवभक्त के लिए बाहर पोल पर आये ,, घुड़सवारों ने प्रणाम किया और वृद ठाकुर की आँखों में चमक सी उभरी और मुस्कराते हुए बोले जोधपुर महाराज आपको मेने गोद में खिलाया है और अस्त्र शस्त्र की शिक्षा दी है इस तरह भेष बदलने पर भी में आपको आवाज से पहचान गया हूँ । हुकम आप अंदर पधारो ।। में आपकी रियासत का छोटा सा जागीरदार , आपने मुझे ही बुलवा लिया होता ।
राव रिड़मल ने उनको झुककर प्रणाम किया और बोले एक समस्या है , और बादशाह के दरबार की पूरी कहानी सुना दी, अब आप ही बताये की जीवित योद्धा का कैसे पता चले की ये लड़ाई में  सिर कटने के बाद भी लड़ेगा ?
रोहणी जागीदार बोले , बस इतनी सी बात "मेरे दोनों बच्चे सिर कटने के बाद भी लड़ेंगे और आप दोनों को ले जाओ दिल्ली दरबार में ये आपकी और रजपूती की लाज जरूर रखेंगे "
राव रिड़मल को घोर आस्चर्य हुआ की एक पिता को कितना विस्वास है अपने बच्चो पर , मान गए राजपूती धर्म को ।
सुबह जल्दी दोनों बच्चे अपने अपने घोड़ो के साथ तैयार थे , उसी समय ठाकुर साहब ने कहा , महाराज थोडा रुकिए में एक बार इनकी माँ से भी कुछ चर्चा कर लूँ इस बारे में । राव रिड़मल ने सोचा आखिर पिता का ह्रदय है कैसे मानेगा अपने दोनों जवान बच्चो के सिर कटवाने को , एक बार रिड़मल जी ने सोचा की मुझे दोनों बच्चो को यही छोड़कर चले जाना चाहिए ।
ठाकुर साहब ने ठकुरानी जी को कहा " आपके दोनों बच्चो को दिल्ली मुगल बादशाह के दरबार में भेज रहा हूँ सिर कटवाने को , दोनों में से कोनसा सिर कटने के बाद भी लड़ सकता है ? आप माँ हो आपको ज्यादा पता होगा , ठकुरानी जी ने कहा बड़ा लड़का तो क़िले और क़िले के बाहर तक भी लड़ लेगा पर छोटा केवल परकोटे में ही लड़ सकता है क्योंकि पैदा होते ही इसको मेरा दूध नही मिला था इसलिए ।।
लड़ दोनों ही सकते है ,आप निश्चित् होकर भेज दो ।
दिल्ली के दरबार में आज कुछ विशेष भीड़ थी और हजारो लोग इस द्रश्य को देखने जमा थे ।
बड़े लड़के को मैदान में लाया गया और मुगल बादशाह ने जल्लादो को आदेश दिया की इसकी गर्दन उड़ा दो , तभी बीकानेर महाराजा बोले "ये क्या तमाशा है ? राजपूती इतनी भी सस्ती नही हुई है , लड़ाई का मोका दो और फिर देखो कौन बहादुर है ?
बादशाह ने खुद के सबसे मजबूत और कुशल योद्धा बुलाये और कहा ये जो घुड़सवार मैदान में खड़ा है उसका सिर् काट दो, 20 घुड़सवारों को दल रोहणी ठाकुर के बड़े लड़के का सिर उतारने को लपका और देखते ही देखते उन 20 घुड़सवारों की लाशें मैदान में बिछ गयी ।
दूसरा दस्ता आगे बढ़ा और उसका भी वही हाल हुआ , मुगलो में घबराहट और झुरझरि फेल गयी , बादशाह के 500 सबसे ख़ास योद्धाओ की लाशें मैदान में पड़ी थी और उस वीर राजपूत योद्धा के तलवार की खरोंच भी नही आई ।।
ये देख कर मुगल सेनापति ने कहा " 500 मुगल बीबियाँ विधवा कर दी आपकी इस परीक्षा ने अब और मत कीजिये हजुर , इस काफ़िर को गोली मरवाईए हजुर ,, तलवार से ये नही मरेगा , कुटिलता और मक्कारी से भरे मुगलो ने उस वीर के सिर में गोलिया मार दी । सिर के परखचे उड़ चुके थे पर धड़ ने तलवार की मजबूती कम नही करी और मुगलो का कत्लेआम खतरनाक रूप से चलते रहा ।
बादशाह ने छोटे भाई को अपने पास निहथे बेठा रखा था ये सोच कर की यदि ये बड़ा यदि बहादुर निकला तो इस छोटे को कोई जागीर दे कर अपनी सेना में भर्ती कर लूंगा लेकिन जब छोटे ने ये अंन्याय देखा तो उसने झपटकर बादशाह की तलवार निकाल ली । उसी समय बादशाह के अंगरक्षकों ने उनकी गर्दन काट दी फिर भी धड़ तलवार चलाता गया और अंगरक्षकों समेत मुगलो का काल बन गए । बादशाह भाग कर कमरे में छुप गया और बाहर मैदान में बड़े भाई और अंदर परकोटे में छोटे भाई का पराक्रम देखते ही बनता था । हजारो की संख्या में मुगल हताहत हो चुके थे और आगे का कुछ पता नही था ।
बादशाह ने चिल्ला कर कहा अरे कोई रोको इनको ।। एक मौलवी आगे आया और बोला इन पर शराब छिड़क दो ।।  राजपूत का इष्ट कमजोर करना हो तो शराब का उपयोग करो ।।दोनों भाइयो पर शराब छिड़की गयी ऐसा करते ही दोनों के शरीर ठन्डे पड़ गए । मौलवी ने बादशाह को कहा "" हजुर ये लड़ने वाला इनका शरीर नही बल्कि इनका इष्ट देव है । और ये राजपूत शराब से दूर रहते है और अपने धर्म और इष्ट को मजबूत रखते है ।
यदि मुगलो को हिन्दुस्तान पर शासन करना है तो इनका इष्ट और धर्म भृष्ट करो और इनमे दारु शराब की लत लगाओ ।। यदि मुगलो में ये कमियां हटा दे तो मुगल भी मजबूत बन जाएंगे ।
उसके बाद से ही राजपूतो में मुगलो ने शराब का प्रचलन चलाया और धीरे धीरे राजपूत शराब में डूबते गए और अपने इष्ट देव को नाराज करते गए ।
और मुगलो ने मुसलमानो को कसम खिलवाई की शराब पीने के बाद नमाज नही पढ़ी जा सकती । इसलिए इससे  दूर रहिये ।।
क्षत्रिय भाइयो ये सच्ची घटना है और हमे क्षत्रिय समाज को इस कुरीति से दूर करना होगा । जब ही हम पुनः खोया वैभव पा सकेंगे और हिन्दू धर्म की रक्षा कर सकेंगे ।
एक छोटा सा प्रयास है मेरा, की ये घटना अधिक से अधिक लोगो तक पहुंचे ।।

सोमवार, 8 जून 2015

रानी कर्मवती और राखी

रानी कर्मवती और राखी

इतिहास में चितौड़ की रानी कर्मवती जिसे कर्णावती भी कहा जाता है द्वारा हुमायूं को राखी भेजने व उस राखी का मान रखने हेतु हुमायूं द्वारा रानी की सहायता की बड़ी बड़ी लिखी हुईं है. इस प्रकरण के बहाने हुमायूं को रिश्ते निभाने वाला इंसान साबित करने की झूंठी चेष्टा की गई. चितौड़ पर गुजरात के बादशाह बहादुरशाह द्वारा आक्रमण के वक्त चितौड़ का शासक महाराणा विक्रमादित्य अयोग्य शासक था. चितौड़ के ज्यादातर सामंत उससे नाराज थे और उनमें से ज्यादातर बहादुरशाह के पास भी चले गए थे. ऐसी स्थिति में चितौड़ पर आई मुसीबत से निपटने के लिए रानी कर्मवती ने सेठ पद्मशाह के हाथों हुमायूं को भाई मानते हुए राखी भेजकर सहायता का अनुरोध किया. हुमायूं ने हालाँकि रानी की राखी का मान रखा और बदले में उसे बहिन मानते हुए ढेरों उपहार भी भेजें. क्योंकि हुमायूं भारतीय संस्कृति में भाई-बहन के रिश्ते का महत्त्व तब से जानता था, जब वह बुरे वक्त में अमरकोट के राजपूत शासक के यहाँ शरणागत था. अमरकोट पर उस समय राजपूत शासक राणा वीरशाल का शासन था| राणा वीरशाल की पटरानी हुमायूं के प्रति अपने सहोदर भाई का भाव रखती थी व भाई तुल्य ही आदर करती थी| हुमायूं के पुत्र अकबर का जन्म भी अमरकोट में शरणागत रहते हुए हुआ था.
भारतीय संस्कृति के इसी महत्त्व को समझते हुए हुमायूं रानी की सहायतार्थ सेना लेकर रवाना हुआ और ग्वालियर तक पहुंचा भी. लेकिन ग्वालियर में हुमायूँ को बहादुरशाह का पत्र मिला जिसमें उसने लिखा था कि वह तो काफिरों के खिलाफ जेहाद कर रहा है. यह पढ़ते ही हुमायूं भारतीय संस्कृति के उस महत्त्व को जिसकी वजह से उसे कभी शरण मिली, उसकी जान बची थी को भूल गया और ग्वालियर से आगे नहीं बढ़ा. काफिरों के खिलाफ जेहाद के सामने हुमायूं भाई-बहन का रिश्ता भूल गया, उसे इस्लाम के प्रसार के आगे ये पवित्र रिश्ता बौना लगने लगा और वह एक माह ग्वालियर में रुकने के बाद 4 मार्च 1533 को वापस आगरा लौट गया.

यही नहीं, जब हुमायूं का एक सरदार मुहम्मद जमा बागी होकर बयाना से भागकर बहादुरशाह की शरण में जा पहुंचा. हुमायूं के उस बागी को वापस मांगने पर बहादुरशाह ने मना कर दिया. तब हुमायूं ने गुजरात पर आक्रमण कर दिया और बहादुरशाह के सेनापति तातारखां को बुरी तरह हरा दिया. उस वक्त बहादुरशाह ने चितौड़ पर दूसरी बार घेरा डाला था. मुग़ल सेना से अपनी सेना के हार का समाचार मिलते ही, बहादुरशाह ने चितौड़ से घेरा उठाकर अपने राज्य रक्षार्थ प्रस्थान करने की योजना बनाई. 
लेकिन उसके एक सरदार ने साफ़ किया कि जब वह चितौड़ पर घेरा डाले है, हुमायूं हमारे खिलाफ आगे नहीं बढेगा. क्योंकि चितौड़ पर बहादुरशाह का घेरा हुमायूं की नजर में काफिरों के खिलाफ जेहाद था. हुआ भी यही हुमायूं सारंगपुर में रुक कर चितौड़ युद्ध के परिणाम की प्रतीक्षा करने लगा. लेकिन कर्णावती की राखी की लाज बचाने जेहाद के बीच बहादुरशाह से दुश्मनी होने के बावजूद नहीं आया. आखिर चितौड़ विजय के बाद बहादुरशाह हुमायूं से युद्ध के लिए गया और मन्दसौर के पास मुग़ल सेना से हुए युद्ध में हार गया. उसकी हार की खबर सुनते ही चितौड़ के 7000 राजपूत सैनिकों ने चितौड़ पर हमला कर उसके सैनिकों को भगा दिया और विक्रमादित्य को बूंदी से लाकर पुन: गद्दी पर आरुढ़ कर दिया.

राजपूत वीरों द्वारा पुन: चितौड़ लेने का श्रेय भी कुछ दुष्प्रचारियों ने हुमायूं को दिया कि हुमायूं ने चितौड़ को वापस दिलवाया. जबकि हकीकत में हुमायूँ ने बहादुरशाह से चितौड़ के लिए कभी कोई युद्ध नहीं किया. बल्कि बहादुरशाह से बैर होने के बावजूद वह चितौड़ मामले में बहादुरशाह के खिलाफ नहीं उतरा. 

वीर योद्धा डूंगर सिंह भाटी

जहा मुस्लिम चादर चढ़ाते है एक राजपूत की मजार पर...
_______वीर योद्धा डूंगर सिंह भाटी_______
सिर कटे धड़ लड़े रखा रजपूती शान

"दो दो मेला नित भरे, पूजे दो दो थोर॥
सर कटियो जिण थोर पर, धड जुझ्यो जिण थोर॥ ”

मतलब :-
एक राजपूत की समाधी पे दो दो जगह मेले लगते है,
पहला जहाँ उसका सर कटा था और दूसरा जहाँ उसका धड लड़ते हुए गिरा था….

राजपुताना वीरो की भूमि है। यहाँ ऐसा कोई गाव नही जिस पर राजपूती खून न बहा हो, जहाँ किसी जुंझार का देवालय न हो, जहा कोई युद्ध न हुआ हो। भारत में मुस्लिम आक्रमणकर्ताओ कोे रोकने के लिए लाखो राजपूत योद्धाओ ने अपना खून बहाया बहुत सी वीर गाथाये इतिहास के पन्नों में दब गयी। इसी सन्दर्भ में एक सच्ची घटना-

उस वक्त जैसलमेर और बहावलपुर(वर्तमान पाकिस्तान में) दो पड़ोसी राज्य थे। बहावलपुर के नवाब की सेना आये दिन जैसलमेर राज्य के सीमावर्ती क्षेत्रो में डकैती, लूट करती थी परन्तु कभी भी जैसलमेर के भाटी वंश के शासको से टकराने की हिम्मत नही करती थी।
उन्ही दिनों एक बार जेठ की दोपहरी में दो राजपूत वीर डूंगर सिंह जी उर्फ़ पन्न राज जी, जो की जैसलमेर महारावल के छोटे भाई के पुत्र थे और उनके भतीजे चाहड़ सिंह जिसकी शादी कुछ दिन पूर्व ही हुयी थी, दोनों वीर जैसलमेर बहावलपुर की सीमा से कुछ दुरी पर तालाब में स्नान कर रहे थे। तभी अचानक बहुत जोर से शोर सुनाई दिया और कन्याओ के चिल्लाने की आवाजे आई। उन्होंने देखा की दूर
बहावलपुर के नवाब की सेना की एक टुकड़ी जैसलमेर रियासत के ही ब्राह्मणों के गाँव "काठाडी" से लूटपाट कर अपने ऊँटो पर लूटा हुआ सामान और साथ में गाय, ब्राह्मणों की औरतो को अपहरण कर जबरदस्ती ले जा रही है। तभी डूंगर सिंह उर्फ़ पनराजजी ने भतीजे चाहड़ सिंह को कहा की तुम जैसलमेर जाओ और वहा महारावल से सेना ले आओ तब तक में इन्हें यहाँ रोकता हूँ। लेकिन चाहड़ समझ गए थे की काका जी कुछ दिन पूर्व विवाह होने के कारण उन्हें भेज रहे हैँ। काफी समझाने पर भी चाहड़ नही माने और अंत में दोनों वीर क्षत्रिय धर्म के अनुरूप धर्म निभाने गौ ब्राह्मण को बचाने हेतु मुस्लिम सेना की ओर अपने घोड़ो पर तलवार लिए दौड़ पड़े।
डूंगर सिंह को एक बड़े सिद्ध पुरुष ने सुरक्षित रेगिस्तान पार कराने और अच्छे सत्कार के बदले में एक चमत्कारिक हार दिया था जिसे वो हर समय गले में पहनते थे।

दोनों वीर मुस्लिम टुकडी पर टूट पड़े और देखते ही देखते बहावलपुर सेना की टुकड़ी के लाशो के ढेर गिरने लगे। कुछ समय बाद वीर चाहड़ सिंह (भतीजे)भी वीर गति को प्राप्त हो गए जिसे देख क्रोधित डूंगर सिंह जी ने दुगुने वेश में युद्ध लड़ना शुरू कर दिया। तभी अचानक एक मुस्लिम सैनिक ने पीछे से वार किया और इसी वार के साथ उनका शीश उनके धड़ से अलग हो गया। किवदंती के अनुसार, शीश गिरते वक़्त अपने वफादार घोड़े से बोला-
"बाजू मेरा और आँखें तेरी"
घोड़े ने अपनी स्वामी भक्ति दिखाई व धड़, शीश कटने के बाद भी लड़ता रहा जिससे मुस्लिम सैनिक भयभीत होकर भाग खड़े हुए और डूंगर जी का धड़ घोड़े पर पाकिस्तान के बहावलपुर के पास पहुंच गया। तब लोग बहावलपुर नवाब के पास पहुंचे और कहा की एक बिना मुंड आदमी बहावलपुर की तरफ उनकी टुकडी को खत्म कर गांव के गांव तबाह कर जैसलमेर से आ रहा है।

वो सिद्ध पुरुष भी उसी वक़्त वही थे जिन्होंने डूंगर सिंह जी को वो हार दिया था। वह समझ गए थे कि वह कोई और नहीं डूंगर सिंह ही हैं। उन्होंने सात 7 कन्या नील ले कर पोल(दरवाजे के ऊपर) पर खडी कर दी और जैसे ही डूंगर सिंह नीचे से निकले उन कन्याओं के नील डालते ही धड़ शांत हो गया।

बहावलपुर, जो की पाकिस्तान में है जहाँ डूंगर सिंह भाटी जी का धड़ गिरा, वहाँ इस योद्धा को मुण्डापीर कहा जाता है। इस राजपूत वीर की समाधी/मजार पर उनकी याद में हर साल मेला लगता है और मुसलमानो द्वारा चादर चढ़ाई जाती है।

वहीँ दूसरी ओर भारत के जैसलमेर का मोकला गाँव है, जहाँ उनका सिर कट कर गिरा उसे डूंगरपीर कहा जाता है। वहाँ एक मंदिर बनाया हुआ है और हर रोज पूजा अर्चना की जाती है। डूंगर पीर की मान्यता दूर दूर तक है और दूर दराज से लोग मन्नत मांगने आते हैँ।

गुरुवार, 28 मई 2015

12 बज गए

एक सरदार पर जोक बनाना औए सुनाना कितना आसान होता है न । सर में पंगडी और बगल में कृपाण रखने वाले सरदार भी अक्सर आपके जोक्स और मजाक को भी नजरअंदाज करते हुए खुश रहते हैं.फिर भी आप उनसे बगैर पूँछे “सरदार जी के बारह बज गए” कहते हुए मजे लेते रहते हैं । ज्यादातर लोगों को लगता है की सरदार के चिल्ड नेचर और भाव-भंगिमाओं के कारण ही इस फ्रेज का लोग इस्तेमाल करते हैं । आज हम आपको बताते हैं की इस जुमले की पीछे की हकीकत क्या है,और निश्चित ही इसे पढ़कर इसका प्रयोग करने वालों को शर्मिंदगी जरूर महसूस होगी । आप ये समझ पायेंगे कि एक सरदार क्या होता है?

1) सत्रहवीं शताब्दी में जब देश में मुगलों का अत्याचार चरम पर था,बहुसंख्यक हिन्दुओं को धर्म-परिवर्तन के लिए अमानवीय यातनाएं दी जाती थीं,औरंगजेब के काल में ये स्थिति और बदतर हो गयी ।

2) मुग़ल सैनिक,धर्मान्तरण के लिए हिन्दू महिलाओं की आबरू को निशाना बनाते थे । अंततः दुर्दांत क़त्ल-ए-आम और बलात्कार से परेशान हो कश्मीरी पंडितों ने आनंदपुर में सिखों के नवमे गुरु तेग बहादुर से मदद की गुहार लगाई.

3) गुरु तेग बहादुर ने बादशाह ‘औरंगजेब’ के दरबार में अपने आपको प्रस्तुत किया और चुनौती दी कि यदि मुग़ल सैनिक उन्हें स्वयं इस्लाम कबूल करवाने में कामयाब रहे तो अन्य हिन्दू सहर्ष ही इस्लाम अपना लेंगे ।

4) औरंगजेब बेहद क्रूर था,परन्तु अपनी कौल का पक्का व्यक्ति था,गुरु जी उसके स्वभाव से परिचित थे । गुरूजी के प्रस्ताव पर उसने सहर्ष स्वीकृति दे दी । गुरु तेग बहादुर और उनके कई शिष्य मरते दम तक अत्याचार सहते हुए शहीद हो गए,पर इस्लाम स्वीकार नहीं किया । इस तरह अपने प्राणों की बलि देकर उन्होंने बांकी हिन्दुओं के हिंदुत्व को बचा लिया ।

5) इसी कारण उन्हें “हिन्द की चादर” से भी जाना जाता है,उनके देहावसान के बाद,उनके सुयोग्य बेटे गुरु गोविन्द सिंह जी ने हिंदुत्व की रक्षा के लिए आर्मी का निर्माण किया,जो कालांतर में ‘सिख’ के नाम से जाने गए ।

6) 1739 में जब इरानी आक्रांता नादिर शाह ने दिल्ली पर हमला करते हुए,हिन्दुस्तान की बहुमूल्य संपदा को लूटना शुरू कर दिया । इन हवसी आक्रमणकारियों ने करीब 2200 भारतीय महिलाओं को बंधक बना लिया.

7) सरदार जस्सा सिंह जो की सिख आर्मी के कमांडर-इन-चीफ थे,ने इन लुटेरों पर हमला करने की योजना बनायी । परन्तु उनकी सेना दुश्मन की तुलना में बहुत छोटी थी इसलिए उन्होंने आधी रात को बारह बजे हमला करने का निर्णय लिया ।

8) महज कुछ सैकड़ों की संख्या में सरदारों ने,कई हजार लुटेरों के दांत खट्टे करते हुए महिलाओं को आजाद करा दिया । सरदारों के शौर्य और वीरता से लुटेरों की नींद और चैन हराम हो गया.

9) यह क्रम नादिर शाह के बाद उसके सेनापति अहमद शाह अब्दाली के काल में भी जारी रहा । अब्दालियों और ईरानियों ने अब्दाल मार्केट में,हिन्दू औरतों को बेंचना शुरू कर दिया.सिखों ने अपनी मिडनाईट(12 बजे) में ही हमला करने की स्ट्रैटिजी जारी रखी और एक बार फिर दुश्मनों की आँखों में धुल झोंकते हुए महिलाओं को बचा लिया ।

10) सफलता पूर्वक लड़कियों और औरतों के सम्मान की रक्षा करते हुए,सिखों ने दुश्मनों और लुटेरों से अपनी इज्जत की हिफाजत की । रात 12 बजे के समय में हमला करते समय लुटेरे कहते थे “सरदारों के बारह बज गए”सरदार और सिख राष्ट्र की अमूल्य धरोहर हैं। सरदार के केश और कृपाण उसे अतुलित धैर्य और साहस से परिपूरित करते हैं ।

सरदार और सिख राष्ट्र की अमूल्य धरोहर हैं, सरदार के केश और कृपाण उसे अतुलित धैर्य और साहस से परिपूरित करते हैं । सिख एक महान कौम है,जिसने मध्यकाल में गुलामी की काली रात में सनातन और हिन्दुस्तान को स्वयं के प्राणों की बलि देकर बचाए रखा । गुरु गोविन्द सिंह जी की प्रसिद्द उक्ति है

सवा लाख से एक लडाऊं,तब मै गुरु गोविंद सिंह कहलाऊं

ऐसी वीरता,साहस और ईमानदारी के पर्याय सरदारों को “12 बज गए” कह कर चिढाना/हँसना बेहद शर्मनाक है । उन विदेशी लुटेरों से रक्षित स्त्रियों के वंशजों द्वारा ‘लुटेरों की ही टिप्पणी’ को दोहराना अनजाने में ही सही पर,किसी देशद्रोह से कम नहीं है।
सरदारों के “12 बज गए” एक ऐसा मुहावरा है जो की उन लुटेरों के ‘गीदड़पाने’ और हमारी वीरता का पर्याय है,इसे लाफिंग मैटर के रूप में नहीं बल्कि गर्व के रूप में कहिये।