शनिवार, 18 जुलाई 2020

"परमवीर चक्र" मेजर पीरू सिंह शेखावत

"परमवीर चक्र" मेजर पीरू सिंह शेखावत -   
बलिदान दिवस 18 जुलाई 1948

मेजर पीरू सिंह शेखावत  का जन्म 20 मई 1918 को गाँव रामपुरा बेरी, (झुँझुनू) राजस्थान में हुआ . वह 20 मई 1936 को 6 राजपुताना रायफल्स में भर्ती हुए.

1948 की गर्मियों में जम्मू & कश्मीर ऑपरेशन के दौरान पाकिस्तानी सेना व कबाईलियों ने संयुक्त रूप से टीथवाल सेक्टर में भीषण आक्रमण किया.  इस हमले में दुशमन ने भारतीय सेना को किशनगंगा नदी पर बने अग्रिम मोर्चे छोड़ने पर मजबूर कर दिया.

भारतीय हमले 11 जुलाई 1948 को शुरू हुए. यह ऑपरेशन 15 जुलाई तक अच्छी तरह जारी रहे. इस इलाके में दुश्मन एक ऊँची पहड़ी पर पहाड़ी पर स्थित था , अत: आगे बढ़ने के लिए उस जगह पर कब्जा करना बहुत ही आवश्यक था. उस के नजदीक ही दुश्मन ने एक और पहाड़ी पर बहुत ही मजबूत मोर्चाबंदी कर रखी थी.  6 राजपुताना रायफल्स को इन दोनों पहाड़ी मोर्चों पर फिर से कब्ज़ा  करने का  विशेष काम दिया गया.

इस हमले के दौरान पीरू सिंह इस कंपनी के अगुवाई करने वालों में से थे, जिस के आधे से ज्यादा सैनिक दुश्मन की भीषण गोलाबारी में शहीद  हों चुके थे . पीरू सिंह दुश्मन की उस मीडियम मशीन गन पोस्ट की तरफ दौड़ पड़े जो उन के साथियों पर मौत बरसा रही थी. दुश्मन के बमों के छर्रों से पीरू सिंह के कपड़े तार - तार हो गए व शरीर बहुत सी जगह से बुरी तरह घायल हो गया, पर यह घाव वीर पीरू सिंह को आगे बढ़ने से रोक नहीं सके.  वह राजपुताना रायफल्स का जोशीला युद्धघोष " राजा रामचंद्र की जय" करते लगातार आगे ही बढ़ते रहे. आगे बढ़ते हुए उन्होनें मीडियम मशीन गन से फायर कर रहे दुश्मन सैनिक को अपनी स्टेनगन से मार डाला व कहर बरपा रही मशीन गन बंकर के सभी दुश्मनों को मारकर उस पोस्ट पर कब्जा कर लिया.

तब तक उन के सारे साथी सैनिक या तो घायल होकर या प्राणों का बलिदान कर रास्ते में पीछे ही पड़े रह गए.  पहाड़ी से दुश्मन को हटाने की जिम्मेदारी मात्र अकेले पीरू सिंह पर ही रह गई . शरीर से बहुत अधिक खून बहते हुए भी वह दुश्मन की दूसरी मीडियम मशीन गन पोस्ट पर हमला करने को आगे बढ़ते, तभी एक बम ने उन के चेहरे को घायल कर दिया. उन के चेहरे व आँखो से खून टपकने लगा तथा वह लगभग अँधे हो गए. तब तक उन की स्टेन गन की सारी गोलियां भी खत्म हो चुकी थी . फिर भी दुश्मन के जिस बँकर पर उन्होने कब्जा किया था, उस बँकर से वह बहादुरी से रेंगते हुए बाहर निकले, व दूसरे बँकर पर बम फेंके.

बम फेंकने के बाद पीरू सिंह दुश्मन केे उस बँकर में कूद गए व दो दुश्मन सैनिकों को मात्र स्टेन गन के आगे लगे चाकू से मार गिराया. जैसे ही पीरू सिंह तीसरे बँकर पर हमला करने के लिए बाहर निकले उन के सिर में एक गोली आकर लगी फिर भी वो तीसरे बँकर की तरफ बढ़े व उस के मुहाने पर गिरते देखे गए.

तभी उस बँकर में एक भयंकर धमाका हुआ, जिस से साबित हो गया की पीरू सिंह के फेंके बम ने अपना काम कर दिया है. परतुं तब तक पीरू सिंह के घावों से बहुत सा खून बह जाने के कारण वो शहीद हो गए. उन्हे कवर फायर दे रही "C" कंपनी के कंपनी कमांडर ने यह सारा दृश्य अपनी आँखों से देखा. अपनी विलक्षण वीरता के बदले उन्होने अपने जीवन का मोल चुकाया, पर अपने अन्य साथियों के समक्ष अपनी एकाकी वीरता, दृढ़ता व मजबूती का अप्रतिम उदाहरण प्रस्तुत किया. इस कारनामे को विश्व के अब तक के सबसे साहसिक कारनामो में एक माना जाता है.

अपनी प्रचंड वीरता, कर्त्तव्य के प्रति निष्ठा और प्रेरणादायी कार्य के लिए कंपनी हवलदार मेजर पीरू सिंह भारत के युद्धकाल के सर्वोच्च वीरता पुरस्कार "परमवीर चक्र" से मरणोपरांत सम्मानित किए गए.

बुधवार, 1 जुलाई 2020

Thakur Balwant Singh Bakhasar

The story of a Rajasthani Dacoit ., who helped guide the Indian Para Commandos in 1971 war to their targets in Pakistan



He is Thakur Balwant Singh Bakhasar from Barmer, Rajasthan.

 He played an active role in helping the Indian Army reach Sindh and capture Pakistani areas during the Indo-Pak War of 1971.

 He was active as a dacoit in and around Barmer, parts of Gujarat and Sindh in Pakistan and was dreaded in these regions within a circumference of 100 km in the pre 1971s.

 He was familiar of each and every corner and pathway of these regions. 

His knowledge of untrodden routes proved a boon for the Indian Army in the war. Ultimately India won this war against Pakistan.

Indian Para Commandos in this region during the 1971 war was led by Lt.Col. Sawai Bhawani Singh. 

The Col was aware of Balwant Singh’s knowledge of routes in that region. He sought the dacoit’s guidance of routes to which the latter readily agreed.  

The Indian Army first attacked and captured Chachro town in Pakistan on December 7, 1971.

 Thereafter, the Indian Army commandos attacked Virawah and captured it. In total, Dacoit Balwant Singh Bakhasar not only guided the Indian Army but also (along with his associates) participated as soldiers to capture many villages of Pakistan.

Interestingly, Balwant Singh Bakhasar started his pastime as a Gaurakshak.

 Pakistanis often came to India along the borders and stole cattle. Balwant Singh Bakhasar saved the cows, killing the Pakistani cattle thieves. 

He saved many cows from being stolen and encountered many cattle thieves. 

This stopped the the Pakistanies from further entering the Indian borders and stopped their activities. They dreaded Balwant Singh.

Dacoit Th. Balwant Singh Bakhasar became a hero and his fame as a patriot spread far and wide.

 The Rajasthan government pardoned him. Lt.Col. 

Sawai Bhawani Singh was awarded with Mahaveer Chakra. 

पागी



• 2008 फ़ील्ड मार्शल मानेक शॉ वेलिंगटन ( तामिलनाडू ) के अस्पताल में भर्ती थे । गंभीर अस्वस्थता और अर्धमूर्छा में वे एक नाम अक्सर लेते थे - पागी-पागी !! डाक्टरों ने एक दिन पूछ दिया “ सर हू इज दिस पागी ?” सैम साहब ने स्वयम ब्रीफ़ किया !!

• 1971 भारत युद्ध जीत चुका था , जनरल मानिक शॉ ढाका में थे । आदेश दिया कि पागी को बुलवाओ, डिनर आज उसके साथ करूँगा ! हेलिकॉप्टर भेजा गया। हेलिकॉप्टर पर सवार होते समय पागी की एक थैली नीचे रह गई, जिसे उठाने के लिए हेलिकॉप्टर वापस उतारा गया था। अधिकारियों ने थैली देखी तो दंग रह गए, क्योंकि उसमें दो रोटी, प्याज और बेसन का एक पकवान (गांठिया) भर था। एक रोटी सैम साहब ने खाई और दूसरी पागी ने । 

• उत्तर गुजरात के सुईगांव अंतरराष्ट्रीय सीमा क्षेत्र की एक बॉर्डर पोस्ट को रणछोड़दास पोस्ट नाम दिया गया । यह पहली बार हुआ कि किसी आम आदमी के नाम पर सेना की कोई पोस्ट हो । मूर्ति भी लगाई गई । 

पागी यानी मार्गदर्शक । वो व्यक्ति जो रेगिस्तान में रास्ता दिखाए । रणछोड़दास रबारी को जनरल सैम मानिक शॉ  इसी नाम से बुलाते थे । 

• गुजरात के बनासकांठा ज़िले के पाकिस्तान सीमा से सटे गाँव पेथापुर गथड़ों के थे रणछोडदास । भेड़ बकरी व ऊँट पालन का काम करते थे । जीवन में बदलाव तब आया जब 58 वर्ष की आयु में बनासकांठा के पुलिस अधीक्षक वनराज सिंह झाला ने उन्हें पुलिस के मार्गदर्शक के रूप में रख लिया । 

• हुनर इतना कि ऊँट के पैरों के निशान देख कर बता देते थे कि उसपर कितने आदमी सवार है । इंसानी पैरों के निशान देख कर वजन से लेकर उम्र तक का अंदाज़ा लगा लेते थे । कितने देर पहले का निशान है , कितनी दूर तक गया होगा सब एकदम सटीक आंकलन जैसे कोई कम्प्यूटर गणना कर रहा हो । 

• 1965 युद्ध की शुरुआत में पाकिस्तान सेना ने भारत के गुजरात में कच्छ सीमा स्थित विधकोट  पर कब्ज़ा कर लिया , इस मुठभेड़ में लगभग 100 भारतीय सैनिक शहीद ही गये थे । और भारतीय सेना की एक 10 हजार सैनिकों वाली टुकड़ी को तीन दिन में छारकोट पहुँचना जरूरी था । तब ज़रूरत पड़ी थी पहली बार रणछोडदास पागी की , रेगिस्तानी रास्तों पर अपनी पकड़ की बदौलत सेना को मात्र ढाई दिन में मंज़िल तक पहुँचा दिया था । सेना के मार्गदर्शन के लिए उन्हें सैम साहब ने स्वयम चुना था । सेना में एक पद सृजित किया गया था ..  पागी 

• भारतीय सीमा में छिपे १२०० पाकिस्तानी सैनिकों की लोकेशन सिर्फ़ उनके पदचिह्नों से पता कर भारतीय सेना को बता दी थी । इतना काफ़ी था सेना के लिए वो मोर्चा फतेह करने के लिए ।

• 1971 युद्ध में सेना के मार्गदर्शन के साथ साथ अग्रिम मोर्चे तक गोला बारूद पहुँचाना भी पागी के काम का हिस्सा था । पाकिस्तान के पालीनगर शहर पर जो भारतीय तिरंगा फहरा था उस जीत में पागी की भूमिका अहम थी । सैम साब ने स्वयम ३०० रूपय का नक़द पुरस्कार अपनी जेब से दिया था ।

 पागी को तीन सम्मान भी मिले 65 व 71 युद्ध में उनके योगदान के लिए - संग्राम पदक , पुलिस पदक व समर सेवा पदक

 27 जून 2008 को सैम मानिक शॉ की मृत्यु हुई और 2009 में पागी ने भी सेना से ऐच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली । तब पागी की उम्र 108 वर्ष थी । 112 वर्ष की आयु में 2013 में पागी का निधन हो गया 

• अब वे गुजराती लोकगीतों का हिस्सा है । उनकी शौर्य गाथाएँ युगों तक गाई जाएगी । अपनी देशभक्ति, वीरता, बहादुरी, त्याग, समर्पण, शालीनता के कारण भारतीय इतिहास में हमेशा के लिए अमर हो गए रणछोड़दास रबारी यानि हमारे पागी ।