सोमवार, 8 जून 2020

संत पीपाजी महाराज

‘पीपा पाप न कीजिये’  
                संत पीपाजी महाराज 

राजस्थान में गढ़ गागरौन एक सुप्रसिद्ध किला रहा है | ख्यातों के अनुसार इस स्थान पर पहले डोड राजपूतों का शासन था | बाद में गूंदळराव खीची (चौहान) ने जायल (नागौर) से जाकर पृथ्वीराज द्वितीय के शासनकाल में गागरौन क्षेत्र के डोडों के बारहों गढ़ों पर कब्जा कर लिया| इसी खीची शाखा में देवनसी हुए,जिन्होंने बीजळदेव डोड को परास्त कर फिर से इस क्षेत्र पर हक जमाया | डोड राजपूतों के नाम से पहले इसका नाम डोडरगढ़ था, पर देवनसी ने अपनी बहन गंगा के नाम से गढ़ बनाकर उसका नाम गढ़ गागरौन रखा | पीपाजी देवनसी खीची की 11वीं पीढ़ी में यहाँ के शासक हुए |
                    ‘भक्तमाल’ के लेखक नाभादास इन्हें रामानंद के बारह शिष्यों में से एक मानते हैं , इस तरह वे कबीर के समकालीन ठहरते हैं | लोक मान्यताओं में इनका जन्म चैत्र पूर्णिमा विक्रमी 1380 और देहावसान चैत्र सुदी एकम विक्रमी 1441 मानते हैं | यहाँ यह उल्लेखनीय है कि स्वामी रामानंद के जहां अन्य शिष्य पिछड़े व दलित समुदाय से थे, वहीँ पीपाजी ही एकमात्र सवर्ण क्षत्रिय समुदाय से थे |
राव पीपा ने अपने राज्यकाल में कई युद्धों का सामना किया | टोडा-युद्ध इन्होंने अपने ससुर सोलंकी डूंगरसी की सहायतार्थ लड़ा था | फिरोज तुगलक़ के समय उसकी सेना ने मालवा जाते समय गढ़ गागरौन का घेरा भी डाला था, पर उसे सफलता नहीं मिली थी | पीपाजी के ये दोनों युद्ध उनकी वीर-वृति के सूचक हैं, पर अचानक एक घटना ने उन्हें सांसारिकता से विलग कर दिया | 
लोकाख्यानों के अनुसार पीपाजी शिकार के शौक़ीन थे और अक्सर करने जाते थे | एक दिन उनके सामने से एक हरिणी निकली,जिस पर पीपाजी ने तलवार से वार किया | हरिणी के दो टुकड़े हो गये | गर्भवती हरिणी के साथ ही उसका बच्चा भी कट गया | बस वही उनके जीवन परिवर्तन का क्षण सिद्ध हुआ | वे करुणा के आलोक से जगमगा उठे | उन्होंने रक्तरंजित तलवार वहीँ फेंक दी और वैराग्यवृति धारण कर ली | राजपाट उन्हें बौने और व्यर्थ लगने लगे | वे फिर राजधानी लौटे ही नहीं, वहीँ कुटिया बनाकर रहने लगे और सुई-धागे से कपड़े सीने लगे | उनके अधिकाँश शिष्य क्षत्रिय ही थे, जो उनकी अहिंसावृति से प्रभावित हुए थे | वे भी सिलाई का काम करने लगे | इस तरह एक पीपावर्गीय समुदाय पैदा हुआ, जो राजस्थान,गुजरात , मालवा और देश के अन्य भागों में रहते हैं | दर्जी का धंधा करनेवाले इस समुदाय के सारे गौत्र राजपूत समुदाय के हैं |
उनकी भक्ति निर्गुण समुदाय की थी और करुणा उनके संदेशों का सार है – 
जीव मार जौहर करै, खातां करै बखाण |
पीपा परतख देख ले, थाळी माँय मसाँण ||
पीपा पाप न कीजियै, अळगौ रहीजै आप |
करणी जासी आपरी, कुण बेटौ कुण बाप ||
संत पीपाजी की शिक्षाएं धर्म के उदार पक्ष से संबंधित हैं| सहजता का दर्शन उनकी शिक्षाओं का सार है –
अहंकारी पावै नहीं, कितनोई धरै समाध |
पीपा सहज पहूंचसी, साहिब रै घर साध ||
गढ़ गागरौन में पीपाजी का मंदिर, छतरी और बाग़ है | काशी में ‘पीपाकूप’, द्वारिका के पास आरमाड़ा में ‘पीपावट’, अमरोली (गुजरात) में ‘पीपाबाव’है | जोधपुर के जिस पीपल के नीचे पीपाजी ने तपस्या की थी वह स्थान आज सुप्रसिद्ध पीपाड़ कस्बा है | काळीसिंध और आहड नदियों के संगम पर एक पीपाजी का गुफामन्दिर भी स्थित है | चैत्र-पूर्णिमा पर सम्पूर्ण भारत में पीपाजी की जयंती मनाई जाती है |

गुरुवार, 4 जून 2020

जोधाबाई की एतिहासिकता

जब भी कोई हिन्दू राजपूत किसी मुग़ल की गद्दारी की बात करता है तो कुछ मुग़ल प्रेमियों द्वारा उसे जोधाबाई का नाम लेकर चुप करने की कोशिश की जाती है!

बताया जाता है की कैसे जोधा ने अकबर की आधीनता स्वीकार की या उससे विवाह किया!

परन्तु अकबर कालीन किसी भी इतिहासकार ने जोधा और अकबर की प्रेम कहानी का कोई वर्णन नही किया!

सभी इतिहासकारों ने अकबर की सिर्फ 5 बेगम बताई है!
1.सलीमा सुल्तान
2.मरियम उद ज़मानी
3.रज़िया बेगम
4.कासिम बानू बेगम
5.बीबी दौलत शाद

अकबर ने खुद अपनी आत्मकथा अकबरनामा में भी किसी हिन्दू रानी से विवाह का कोई जिक्र नहीं किया!

परन्तु हिन्दू राजपूतों को नीचा दिखने के लिए कुछ इतिहासकारों ने अकबर की मृत्यु के करीब 300 साल बाद 18 वीं सदी में “मरियम उद ज़मानी”, को जोधा बाई बता कर एक झूठी अफवाह फैलाई!

और इसी अफवाह के आधार पर अकबर और जोधा की प्रेम कहानी के झूठे किस्से शुरू किये गए!

जबकि खुद अकबरनामा और जहांगीर नामा के अनुसार ऐसा कुछ नही था!

18वीं सदी में मरियम को हरखा बाई का नाम देकर हिन्दू बता कर उसके मान सिंह की बेटी होने का झूठ पहचान शुरू किया गया!

फिर 18वीं सदी के अंत में एक ब्रिटिश लेखक जेम्स टॉड ने अपनी किताब "एनालिसिस एंड एंटटीक्स ऑफ़ राजस्थान" में मरीयम से हरखा बाई बनी इसी रानी को जोधा बाई बताना शुरू कर दिया!

और इस तरह ये झूठ आगे जाकर इतना प्रबल हो गया की आज यही झूठ भारत के स्कूलों के पाठ्यक्रम का हिस्सा बन गया है और जन जन की जुबान पर ये झूठ सत्य की तरह आ चूका है!

और इसी झूठ का सहारा लेकर राजपूतों को निचा दिखाने की कोशिश जारी है!

जब भी मैं जोधाबाई और अकबर के विवाह प्रसंग को सुनता या देखता हूं तो मन में कुछ अनुत्तरित सवाल कौंधने लगते हैं!

आन,बान और शान के लिए मर मिटने वाले शूरवीरता के लिए पूरे विश्व मे प्रसिद्ध भारतीय क्षत्रिय अपनी अस्मिता से क्या कभी इस तरह का समझौता कर सकते हैं??

हजारों की संख्या में एक साथ अग्नि कुंड में जौहर करने वाली क्षत्राणियों में से कोई स्वेच्छा से किसी मुगल से विवाह कर सकती हैं??

जोधा और अकबर की प्रेम कहानी पर केंद्रित अनेक फिल्में और टीवी धारावाहिक मेरे मन की टीस को और ज्यादा बढ़ा देते हैं!

अब जब यह पीड़ा असहनीय हो गई तो एक दिन इस प्रसंग में इतिहास जानने की जिज्ञासा हुई तो पास के पुस्तकालय से अकबर के दरबारी 'अबुल फजल' द्वारा लिखित 'अकबरनामा' निकाल कर पढ़ने के लिए ले आया!

उत्सुकतावश उसे एक ही बैठक में पूरा पढ़ डाला पूरी किताब पढ़ने के बाद घोर आश्चर्य तब हुआ जब पूरी पुस्तक में जोधाबाई का कहीं कोई उल्लेख ही नही मिला!

मेरी आश्चर्य मिश्रित जिज्ञासा को भांपते हुए मेरे मित्र ने एक अन्य ऐतिहासिक ग्रंथ 'तुजुक-ए-जहांगिरी' जो जहांगीर की आत्मकथा है उसे दिया!

इसमें भी आश्चर्यजनक रूप से जहांगीर ने अपनी मां जोधाबाई का एक भी बार जिक्र नही किया!

हां कुछ स्थानों पर हीर कुँवर और हरका बाई का जिक्र जरूर था!

अब जोधाबाई के बारे में सभी एतिहासिक दावे झूठे समझ आ रहे थे कुछ और पुस्तकों और इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी के पश्चात हकीकत सामने आयी कि “जोधा बाई” का पूरे इतिहास में कहीं कोई जिक्र या नाम नहीं है!

इस खोजबीन में एक नई बात सामने आई जो बहुत चौकानें वाली है!

ईतिहास में दर्ज कुछ तथ्यों के आधार पर पता चला कि आमेर के राजा भारमल को दहेज में 'रुकमा' नाम की एक पर्सियन दासी भेंट की गई थी जिसकी एक छोटी पुत्री भी थी!

रुकमा की बेटी होने के कारण उस लड़की को 'रुकमा-बिट्टी' नाम से बुलाते थे आमेर की महारानी ने रुकमा बिट्टी को 'हीर कुँवर' नाम दिया चूँकि हीर कुँवर का लालन पालन राजपूताना में हुआ इसलिए वह राजपूतों के रीति-रिवाजों से भली भांति परिचित थी!

राजा भारमल उसे कभी हीर कुँवरनी तो कभी हरका कह कर बुलाते थे!

राजा भारमल ने अकबर को बेवकूफ बनाकर अपनी परसियन दासी रुकमा की पुत्री हीर कुँवर का विवाह अकबर से करा दिया जिसे बाद में अकबर ने मरियम-उज-जमानी नाम दिया!

चूँकि राजा भारमल ने उसका कन्यादान किया था इसलिये ऐतिहासिक ग्रंथो में हीर कुँवरनी को राजा भारमल की पुत्री बता दिया!

जबकि वास्तव में वह कच्छवाह राजकुमारी नही बल्कि दासी-पुत्री थी!

राजा भारमल ने यह विवाह एक समझौते की तरह या राजपूती भाषा में कहें तो हल्दी-चन्दन किया था!

इस विवाह के विषय मे अरब में बहुत सी किताबों में लिखा है!

(“ونحن في شك حول أكبر أو جعل الزواج راجبوت الأميرة في هندوستان آرياس كذبة لمجلس”) हम यकीन नहीं करते इस निकाह पर हमें संदेह
इसी तरह ईरान के मल्लिक नेशनल संग्रहालय एन्ड लाइब्रेरी में रखी किताबों में एक भारतीय मुगल शासक का विवाह एक परसियन दासी की पुत्री से करवाए जाने की बात लिखी है!

'अकबर-ए-महुरियत' में यह साफ-साफ लिखा है कि (ہم راجپوت شہزادی یا اکبر کے بارے میں شک میں ہیں) हमें इस हिन्दू निकाह पर संदेह है क्योंकि निकाह के वक्त राजभवन में किसी की आखों में आँसू नही थे और ना ही हिन्दू गोद भरई की रस्म हुई थी!

सिक्ख धर्म गुरू अर्जुन और गुरू गोविन्द सिंह ने इस विवाह के विषय मे कहा था कि क्षत्रियों ने अब तलवारों और बुद्धि दोनो का इस्तेमाल करना सीख लिया है, मतलब राजपुताना अब तलवारों के साथ-साथ बुद्धि का भी काम लेने लगा है!

17वी सदी में जब 'परसी' भारत भ्रमण के लिये आये तब उन्होंने अपनी रचना ”परसी तित्ता” में लिखा “यह भारतीय राजा एक परसियन वैश्या को सही हरम में भेज रहा है अत: हमारे देव(अहुरा मझदा) इस राजा को स्वर्ग दें"!

भारतीय राजाओं के दरबारों में राव और भाटों का विशेष स्थान होता था वे राजा के इतिहास को लिखते थे और विरदावली गाते थे उन्होंने साफ साफ लिखा है-

”गढ़ आमेर आयी तुरकान फौज ले ग्याली पसवान कुमारी ,राण राज्या राजपूता ले ली इतिहासा पहली बार ले बिन लड़िया जीत!
(1563 AD)

मतलब आमेर किले में मुगल फौज आती है और एक दासी की पुत्री को ब्याह कर ले जाती है!

हे रण के लिये पैदा हुए राजपूतों तुमने इतिहास में ले ली बिना लड़े पहली जीत 1563 AD!

ये ऐसे कुछ तथ्य हैं जिनसे एक बात समझ आती है कि किसी ने जानबूझकर गौरवशाली क्षत्रिय समाज को नीचा दिखाने के उद्देश्य से ऐतिहासिक तथ्यों से छेड़छाड़ की और यह कुप्रयास अभी भी जारी है।
लेकिन अब यह षणयंत्र अधिक दिन नही चलेगा ।।