मंगलवार, 21 अप्रैल 2015

भगवान परशुराम

भगवान परशुराम को भगवन विष्णु का छठवां अवतार माना जाता हैं।  भगवान परशुराम के बारे में यह प्रसिद्ध है कि उन्होंने तत्कालीन अत्याचारी और निरंकुश क्षत्रियों का 21 बार संहार किया। लेकिन क्या आप जानते हैं भगवान परशुराम ने आखिर ऐसा क्यों किया? इसी का जवाब देती है एक रोचक पुराण कथा -

महिष्मती नगर के राजा सहस्त्रार्जुन क्षत्रिय समाज के हैहय वंश के राजा कार्तवीर्य और रानी कौशिक के पुत्र थे | सहस्त्रार्जुन का वास्तवीक नाम अर्जुन था।  उन्होने दत्तत्राई को प्रसन्न करने के लिए घोर तपस्या की। दत्तत्राई उसकी तपस्या से प्रसन्न हुए और उसे वरदान मांगने को कहा तो उसने दत्तत्राई से 10000 हाथों का आशीर्वाद प्राप्त किया।  इसके बाद उसका नाम अर्जुन से सहस्त्रार्जुन पड़ा | इसे सहस्त्राबाहू और राजा कार्तवीर्य पुत्र होने के कारण कार्तेयवीर भी कहा जाता है |

कहा जाता है महिष्मती सम्राट सहस्त्रार्जुन अपने घमंड में चूर होकर धर्म की सभी सीमाओं को लांघ चूका था | उसके अत्याचार व अनाचार से जनता त्रस्त हो चुकी थी | वेद - पुराण और धार्मिक ग्रंथों को मिथ्या बताकर ब्राह्मण का अपमान करना, ऋषियों के आश्रम को नष्ट करना, उनका अकारण वध करना, निरीह प्रजा पर निरंतर अत्याचार करना, यहाँ तक की उसने अपने मनोरंजन के लिए मद में चूर होकर अबला स्त्रियों के सतीत्व को भी नष्ट करना शुरू कर दिया था |

एक बार सहस्त्रार्जुन अपनी पूरी सेना के साथ झाड - जंगलों से पार करता हुआ जमदग्नि ऋषि के आश्रम में विश्राम करने के लिए पहुंचा | महर्षि जमदग्रि ने सहस्त्रार्जुन को आश्रम का मेहमान समझकर स्वागत सत्कार में कोई कसर नहीं छोड़ी | कहते हैं ऋषि जमदग्रि के पास देवराज इन्द्र से प्राप्त दिव्य गुणों वाली कामधेनु नामक अदभुत गाय थी | महर्षि ने उस गाय के मदद से कुछ ही पलों में देखते ही देखते पूरी सेना के भोजन का प्रबंध कर दिया | कामधेनु के ऐसे विलक्षण गुणों को देखकर सहस्त्रार्जुन को ऋषि के आगे अपना राजसी सुख कम लगने लगा। उसके मन में ऐसी अद्भुत गाय को पाने की लालसा जागी। उसने ऋषि जमदग्नि से कामधेनु को मांगा। किंतु ऋषि जमदग्नि ने कामधेनु को आश्रम के प्रबंधन और जीवन के भरण-पोषण का एकमात्र जरिया बताकर कामधेनु को देने से इंकार कर दिया। इस पर सहस्त्रार्जुन ने क्रोधित होकर ऋषि जमदग्नि के आश्रम को उजाड़ दिया और कामधेनु को ले जाने लगा। तभी कामधेनु सहस्त्रार्जुन के हाथों से छूट कर स्वर्ग की ओर चली गई।

जब परशुराम अपने आश्रम पहुंचे तब उनकी माता रेणुका ने उन्हें सारी बातें विस्तारपूर्वक बताई। परशुराम माता-पिता के अपमान और आश्रम को तहस नहस देखकर आवेशित हो गए। पराक्रमी परशुराम ने उसी वक्त दुराचारी सहस्त्रार्जुन और उसकी सेना का नाश करने का संकल्प लिया। परशुराम अपने परशु अस्त्र को साथ लेकर सहस्त्रार्जुन के नगर महिष्मतिपुरी पहुंचे। जहां सहस्त्रार्जुन और परशुराम का युद्ध हुआ। किंतु परशुराम के प्रचण्ड बल के आगे सहस्त्रार्जुन बौना साबित हुआ। भगवान परशुराम ने दुष्ट सहस्त्रार्जुन की हजारों भुजाएं और धड़ परशु से काटकर कर उसका वध कर दिया।

ऋषि जमदग्नि और परशुराम

सहस्त्रार्जुन के वध के बाद पिता के आदेश से इस वध का प्रायश्चित करने के लिए परशुराम तीर्थ यात्रा पर चले गए। तब मौका पाकर सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने अपने सहयोगी क्षत्रियों की मदद से तपस्यारत महर्षि जमदग्रि का उनके ही आश्रम में सिर काटकर उनका वध कर दिया | सहस्त्रार्जुन पुत्रों ने आश्रम के सभी ऋषियों का वध करते हुए, आश्रम को जला डाला | माता रेणुका ने सहायतावश पुत्र परशुराम को विलाप स्वर में पुकारा | जब परशुराम माता की पुकार सुनकर आश्रम पहुंचे तो माता को विलाप करते देखा और माता के समीप ही पिता का कटा सिर और उनके शरीर पर 21 घाव देखे।

यह देखकर परशुराम बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने शपथ ली कि वह हैहय वंश का ही सर्वनाश नहीं कर देंगे बल्कि उसके सहयोगी समस्त क्षत्रिय वंशों का 21 बार संहार कर भूमि को क्षत्रिय विहिन कर देंगे। पुराणों में उल्लेख है कि भगवान परशुराम ने अपने इस संकल्प को पूरा भी किया।

पुराणों में उल्लेख है कि भगवान परशुराम ने  21  बार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन करके उनके रक्त से समन्तपंचक क्षेत्र के पाँच सरोवर को भर कर अपने संकल्प को पूरा किया | कहा जाता है की महर्षि ऋचीक ने स्वयं प्रकट होकर भगवान परशुराम को ऐसा घोर कृत्य करने से रोक दिया था तब जाकर किसी तरह क्षत्रियों का विनाश भूलोक पर रुका | तत्पश्चात भगवान परशुराम ने अपने पितरों के श्राद्ध क्रिया की एवं उनके आज्ञानुसार अश्वमेध और विश्वजीत यज्ञ किया |

शनिवार, 18 अप्रैल 2015

श्री ओम बन्ना


ओम बन्ना एक पवित्र दर्शनीय स्थल है जो पाली जिले में स्थित है ये पाली शहर से मात्र बीस किमी दूर है यहाँ लोग सफल यात्रा और मनोकामना मांगने दूर दूर से आते है यहाँ ये एक बुलेट के रूप में पूजे जाते है ये मंदिर पूरी दुनिया का अनोखा और एक मात्र बुलेट मंदिर है

परिचय--

ओम बन्ना का पूरा नाम ओम सिंह राठौड है ये चोटिला ठिकाने के ठाकुर जोग सिंह जी के पुत्र थे राजपूतो में युवाओ को बन्ना कहा जाता है इसी वजह से ओम सिंह राठौड सभी में ओम बन्ना के रूप में प्रसिद्ध हुए

क्या है मान्यता

सन 1988 में ओम बन्ना अपनी बुलेट पर अपने ससुराल बगड़ी,साण्डेराव से अपने गाँव चोटिला आ रहे थे तभी उनका एक्सीडेंट एक पेड़ से टकराने से हो गया ओम सिंह राठौड़ की उसी वक़्त मृत्यु हो गयी एक्सीडेंट के बाद उनकी बुलेट को रोहिट थाने ले जाया गया पर अगले दिन पुलिस कर्मियों को वो बुलेट थाने में नही मिली वो बुलेट बिना सवारी चल कर उसी स्थान पर चली गयी अगले दिन फिर उनकी बुलेट को रोहिट थाने ले जाया गया पर फिर वही बात हुयी ऐसा तीन बार हुआ चौथी बार पुलिस ने बुलेट को थाने में चैन से बाँध कर रखा पर बुलेट सबके सामने चालू होकर पुनः अपने मालिक सवार के दुर्घटना स्थल पर पहुंच गयी अतः ग्रामीणो और पुलिस वालो ने चमत्कार मान कर उस बुलेट को वही पर रख दिया उस दिन से आज तक वहा दूसरी कोई बड़ी दुर्घटना वह नही हुयी जबकि पहले ये एरिया राजस्थान के बड़े दुर्घटना क्षेत्रो में से एक था  ओम बन्ना की पवित्र आत्मा आज भी वह लोगो को अपनी मौजूदगी का एहसास कराती है आज भी रोहट थाने के नए ठाणेदार जोइनिंग से पहले वह धोक देते है

पूजा स्थल--

पाली जोधपुर राष्ट्रीय राज मार्ग पर ये स्थान है यहा आज भी वही बुलेट मौजूद है और Vओम बन्ना का चबूतरा भी है जहा उनका एक्सीडेंट हुआ था यहाँ दिन रात जोत जलती रहती है और ग्रामीण यहाँ नारियल ,फूल,दारू आधी चढ़ावा चढ़ते है दूर दूर से श्रद्धालु यहाँ आते है         इसे अगले ग्रुप मे भेजे और चमत्कार देखे।            

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2015

वीर दुर्गादास राठोड़

                                    
माई एह्ड़ा पूत जण , जेहडा दुर्गादास !
मार मंडासो थामियो , बिण खम्बे आकास !!

दुर्गादास राठोड़ अपने ज़माने के असाधारण योद्धा , नितिज्ञ व प्रतिभावान व्यक्ति थे।इनका

जन्म 13 अगस्त ,1638 ई . आसकरण जी की तीसरी पत्नी के गर्भ से सालवा में हुआ। इनका माँ

जयमल केलणोत भाटी की पोती थी ,जिसकी वीरता के किस्से प्रसिद्ध थे और इसी से प्रभावित हो कर

आसकरण जी ने इस भटियानी से विवाह किया था।किन्तु भटियानी जी के  उग्र स्वभाव की वजह से ज्यादा

दिन निभ नही पाई। सो पारिवारिक तनाव को कम करने के लिये आसकरण जी ने  माँ बेटो के रहने की

व्यवस्था सालवा से 2कोस की दूरी पर लूँणवां गाव में कर  दी। यही दुर्गादास जी का बचपन बीता और इसी

गाँव में इन्हें शिक्षा भी मिली।आजीविका के लिए जो  थोड़ी बहुत  फसल होती थी उसी पर निर्भर थे।

आयु में बहुत छोटे होते हुए भी दुर्गादास जी अपनी माँ की तरह बहुत साहसी व इरादों के पक्के थे।

आसकरणजी ने अपने दो बड़े पुत्रों के लिए जोधपुर राज्य  में नोकरी की व्यवस्था करदी , लेकिन दुर्गादास जी

बिलकुल उपेक्षित ही रहे।किशोरावस्था को पार कर जाने के बाद भी वह अपने उसी गाँव में अज्ञात जीवन

बिता रहे  थे।

       परन्तु संयोगवश सन 1655 ई . के लगभग एक घटना ने अचानक दुर्गादास राठोड के जीवन और भाग्य

को बिलकुल ही बदल दिया। अपने गाँव में ही इन्होने जोधपुर राज के रबारी की हत्या ऊँटो  को चराने के मामले

को ले कर कर दी।जब महाराजा जसवन्त सिंह जी को मालूम पड़ा की यह हत्या आसकरण जी के पुत्र ने की है

तो महाराजा ने उन से स्पष्टीकरण मांगा। आसकरण जी ने उस गाँव में अपने पुत्र के होने से इनकार कर

दिया, परिणामस्वरूप दुर्गादास जी को महाराज के सामने  हाजिर होने का आदेश हुआ।  महाराजा के सामने

दुर्गादासजी ने अपना अपराध तो स्विकार कर लिया पर साथ ही इस को उचित ठहराते हुए  कहा की रबारी

की लापरवाही की वजह से ऊंट किसानो की खड़ी फसल को रूंद रहे थे ,और जब ऊँटो को बाहर निकाल ने के

लिए कहा गया तो उस ने बदतमीजी की और यहाँ तक की उस ने जोधपुर दुर्ग को भी बिना छत का सफेद खंडर

कहा जो असहनीय था। महाराजा जसवंत सिंह जी उन की निर्भीकता  व जोधपुर के प्रति निष्ठां से काफी

प्रभावित हुए व दुर्गादास जी को अपने पास रखलिया। इन्होने महाराजा का इतना विस्वास जीत लीया की

प्रत्यक अभियान में ये उन के रहने लगे।

इस घटना के करीब 2 वर्ष उपरांत बादसाह शांहजहां बीमार पड गया ,पुरे सम्राज्य में भांति भांति की अफवाहें

फैल ने लगी। दारा द्वारा सूचनाओं पर पाबंदी लगा देने से पूरे साम्राज्य में भ्रान्ति व अफवा फलने लगी। मुग़ल

साम्राज्य के सिंहासन के उतराधिकारी पद के लिए बड़े पैमाने पर युद्ध की तैयारियां होने लगी। बंगाल में शुजा

ने और गुजरात में मुराद ने स्वयम को सम्राट घोषित कर दिया।उधर दक्षिण में ओरंगजेब सारी स्थिति पर

नजर  रखे हुए प्रतीक्षा करता रहा।

इधर शाहजहाँ पूरी तरह स्वस्थ हो  चूका था। उसने अपने हाथ से तीनो शाजदाओं को पत्र लिखा,पर तीनो का

संदेह दूर नही हुआ।ओरंगजेब  दक्षिण से रवाना हो कर धरमत पंहुच गया ,इस की मुराद से सांठ गांठ हो गयी

दोनों की संयुक्त सेना 15 अप्रेल'1658 ई .को  उज्जैन से करीब 10 कोस दूर  धरमत पंहुच गयी जहाँ शाही सेना

  जसवंत सिंहजी के नेतृत्व में आगरा का रास्ता रोके हुए थी।   इस सेना में आसकरण जी व दुर्गादास दोनों थे।

16 अप्रेल'1658 ई . की प्रातः ही युद्ध शुरू हो गया ,ओरंगजेब के तोपखाने की भयंकर गोलाबारी से अग्रिम

पंक्ति में  जहाँ ज्यादा तर राजपूत थे भयंकर रक्तपात हुआ। यधपि इस शुरू की लड़ाई में शाही सेना की

विजय हुई किन्तु इस में राजपूत सरदारों में से अधिकांश अपनी शूरवीरता और पराक्रम के जोहर  दिखाते हुए

मारे  गये। कासिमखां के अधीन मुग़ल सेना ने राजपूतो की कोई सहायता नही की।आगे चलकर जब जसवंत

सिंह की सेना के कुछ  सेनानायक दूसरी तरफ मिलने लगे तो कुछ राजपूत सेनानायक भी मैदान छोड़ कर

चले गये। मराठा सेनानायक भी भाग खड़े हुए।

जसवंत सिंह अपने राठोड़ वीरों के साथ युद्ध में डटे रहे। आसकरण व दुर्गादास ने राठोड सेना की बागडोर

संभाल ली व जसवंत सिंह की तरफ केन्द्रित होती शत्रु सेना का डट कर प्रतिरोध किया दुर्गादास  असीम

बहादुरी का प्रदर्शन करते हुए घायल हो कर युद्ध भूमि में गिर  पड़े। कुम्भकर्ण सांदू  जो समकालीन कवि

है ने "रतनरासो " में लिखा  है "दुर्गादास राठोड ने एक के बाद एक चार  घोडों  की सवारी की और जब चारों

एक एक कर  के मारे गये तो अंत में वह पांच वे घोड़े पर सवार हुआ ,लेकिन यह पांचवा घोडा भी मारा गया।

तब तक न केवल उसके सारे हथियार  टूट चुके थे बल्कि उसका शरीर भी बुरी तरह से घायल हो चुका था।

अंतत:वह भी रणभूमि में गिर पड़ा।एसा लगता था जैसे एक और भीष्म शरसैया पर लेटा है।जसवंत सिंह के

आदेश से दुर्गादास को युद्ध भूमि से हटा लिया गया और जोधपुर भेज दिया। "

अत्यंत वीरता एवं कोशल से लड़ते हुए स्वयम जसवंत सिंह को भी  दो गहरे  घाव लगे। तब उन्होंने युद्ध में

खेत रहने की ठान ली।परन्तु दोपहर तक , जबकि विजय असम्भव दिखने लगी, आसकरण करनोत व दूसरे

राठोड सेना प्रमुखों ने महाराजा के घोड़े की लगाम पकडली और उसे युद्ध छेत्र से बाहर खींच ले गये।रतन सिंह

राठोड़ ने शेष सेना की बागडोर संभाल ली और अंतिम चरण के युद्ध में लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ।

                   इस समय से लेकर जसवंत सिंह जी के स्वर्गवास तक दुर्गादास  उनके प्रमुख सामन्तो में रहे।

जसवंत सिंह जी की मृत्यु 52 वर्ष की अवस्था में  जमरूद के थाने पर 28 नवम्बर '1678 ई . को हो गयी और

यहीं से दुर्गादास के जीवन का नया और महत्वपूर्ण अध्याय शुरू होता है। महाराजा जसवंत सिंह की मृत्यु के

समय उनका कोई भी पुत्र जीवित नही था। दो रानियाँ गर्भवती थी व पेशावर में उनके साथ  थी। इन

परिस्थितियों में  ओरंगजेब ने जोधपुर को खालसा कर लिया, इधर नागौर के राव इन्द्रसिंह ने जोधपुर पर

अपनी दावेदारी प्रस्तुत की क्यों की यह अमर सिंह का पोत्र था जो कि जसवंत सिंह के जेष्ठ भ्राता थे।

19 फरवरी 1679 ई .को दोनो रानियों के एक एक पुत्र पैदा हुआ , बड़े का नाम अजीतसिंह व छोटे का दलथ्म्भन

रखा गया। यह खबर ओरंगजेब को 27 फरवरी 1679 ई .को अजमेर में मिली जहाँ वह कैम्प किये हुआ था।

उसके मुंह से बरबस निकलपड़ा- "   आदमी कुछ सोचता है खुदा ठीक उसके उल्टा करता है।"

             लाहोर से दोनों महारानियों और राजकुमारों के साथ मारवाड़ का दल दिल्ली के लिए 28 फरवरी को

रवाना  हुआ। इस दल की रक्षा के लिए पेशावर से ही जो सरदार साथ थे उनमे दुर्गादास राठोड़ विशेष प्रतिष्टित

व्यक्ति थे। अप्रेल में यह दल दिल्ली पंहुचा और जोधपुर हवेली में रुका। जोधपुर से भी पंचोली केशरी सिंह ,

भाटी रघुनाथ ,राठोड रूप सिंह उदावत और अन्य कई सरदार दिल्ली पहुंच गये।मई माह में इंद्र सिंह को

जोधपुर का राजा बना दिया और उस के साथ ही महारानियो व राजकुमारों को हवेली खाली कर किशनगढ़ की

हवेली में स्थानांतरिक किया गया।  महारानियों व उनके पुत्रों के प्राणों के संकट को देखते हुए राठोड

रणछोड़दास ,भाटी रघुनाथ ,राठोड रूप सिंह ,दुर्गादास राठोड आदि  मारवाड़  के सरदारों ने राजकुमारों को

चुपके से दिल्ली से निकाल लेने की योजना बनाई।

                            बलुन्दा के राठोड मोहकम सिंह , खिची मुकंददास तथा मारवाड़ के कुछ अन्य सरदारों ने

बादशाह से मारवाड़ जाने की अनुमति मांगी तो ओरंगजेब को कुछ राहत मिली ,  मोहकम सिंह  व उनका

परिवार  पेशावर से साथ आया था। मोहकम सिंह के एक बच्चे को दोनों राजकुमारों से बदल दिया।इस प्रकार

बड़े कड़े पहरे के बीच दोनों राजकुमारों को दिल्ली से सकुशल बाहर निकाल दिया। दिल्ली में 140 सरदार ,725

घुड़सवार व 150 अन्य कर्मचारी रह गये।

                         इस बात से अनभिग्य  ओरंगजेब ने अपना शिकंजा कसना शुरू किया, और आदेश दिया की

राजकुमारों  को शाही हरम में रख कर शिक्षा दी जाएगी। राठोड़ो ने इसका विरोध किया, ओरंगजेब इस से

भड़क उठा। उसने कोतवाल फोलादखान को आदेश दिया की वे जसवंत सिंह की दोनों महारानियों व

राजकुमारों को रूपसिंह राठोड की हवेली उठाकर नूरगढ़ ले जायें ,राठोड अगर विरोध करे तो उन्हें उचित दंड

दिया जावे। 16 जुलाई 1679 ई . को रूपसिंह की हवेली को एक बड़ी फोज के साथ घेर लिया गया।मृत्यु प्रेमी

राजपूतों को समझाने का काफी प्रयास किया गया, लेकिन सफलता नही मिली। अब मुख्य उदेश्य यही था

कि दोनों महारानियो को दिल्ली से सुरक्षित निकल ले जाये व प्रतिरोध करते हुए अधिक से अधिक मारवाड़ के

सरदारों व घुड़सवारों को बचाया जाये। सझने बुझाने से कोई बात नही बनी और लड़ाई शुरू हो गई। प्रसिद्ध

इतिहासकार यदुनाथ सरकार लिखते है -" जब दोनों और से गोलिया चल रही थी तब जोधपुर के एक भाटी

सरदार रघुनाथ ने एक सो वफादार सैनकों के साथ हवेली के एक तरफ से धावा बोला।चेहरों पर मृत्यु की सी

गंभीरता और हाथों में भाले  लिये वीर राठोड शत्रु पर टूट पड़े।" उनके भयानक आक्रमण से शाही सैनिक

घबरा उठे। क्षणिक हडबडाहट का लाभ उठा कर दुर्गादास  और वफादार घुड़सवारों का दल पुरष वेशी दोनों

महारानियो के साथ निकल कर मारवाड़ की और बढ़ने लगे। " डेढ़ घंटे तक रघुनाथ  भाटी दिल्ली की गलियों

को रक्त रंजित करता रहा और अंत में अपने 70 वीरों के साथ मारा गया।"  अब शाही सैनिको का दल दुर्गादास
के पीछे लगा जो अब तक  करीब 4-5 कोस  की दूरी तय  कर  चुके थे। जब शाही सैनिक दल नजदीक आने

लगा तो अब उन को रोकने की जिम्मेदारी  रणछोड दास जोधा की थी। उसने कुछ सैनिको के साथ  शाही

घुड़सवारों को रोक कर रानियों को बचाने  के लिए बहुमूल्य समय अर्जित किया। जब उन का विरोध शांत हो

गया तब मुग़ल सवार उनकी लाशों को रोंद कर बचे हुए दल के पीछे भागे।

                    अब दुर्गादास व उनका छोटा सा दल वापस मुडकर पीछा करने वालों का सामना करने के लिए

विवश हो गये।वहां भयानक युद्ध हुआ और मुग़ल सैनिकों को कुछ देर के लिए रोका गया,  किन्तु स्थिति काबू

से बहार हो चुकी थी। दिल्ली स्थित हवेली से बाहर निकलते समय दोनो महारानियों को भी युद्ध करना पड़ा

था और वे जख्मी हो चुकी थी।पांचला के चन्द्रभान जोधा जिस पर महारानियों का दायत्व था , के सामने अब

कोई विकल्प नही रहा और उसने दोनों के सर काट दिए। उसने भी भयंकर युद्ध करते हुए मातृभूमि के लिए

प्राण निछावर कर दिए।

             शाम हो चुकी थी। मुग़ल सैनिक तीन  भयानक मुठभेड़ो से थक कर पीछे लोट गये व घायल दुर्गादास

व बचे हुए 7 सैनिको का पिच्छा  नही किया। दुर्गादास ने महारानियो की पार्थिव देह को यमुना में प्रवाहित

कर दिया।

         इंद्र सिंह को राजा बना देने से राठोड़ो में रोष फैल गया। 23 जुलाई '1679 ई . को जब अजीत सिंह को

लेकर राठोड  दुर्गादास , मुकन्द दास  खिची आदि मारवाड़ पहुंच गये,इस खबर से विरोध और बढ़ा। उस समय

दुर्गादास जो सालवा में स्वास्थ्य लाभ कर रहा था स्वाभाविक रूप से राठोड सैन्य शक्तियों का केंद्र तथा

मार्गदर्शक बन गया।

27 वर्ष के सतत संघर्ष के उपरांत 18 मार्च 1707 ई . का अजित सिंह का कब्ज़ा जोधपुर पर हो गया और इस

प्रकार  अनवरत प्रयत्न के बाद दुर्गादास राठोड की जीवन साधना सफल हुई। मारवाड़ पराये शासन से मुक्त

हो एक बार फिर अपने शासकों के आधीन आ गया।परन्तु सफलता की इस घड़ी में भी दुर्गादास राठोड

अजीतसिंह के अस्थिर स्वभाव और उसके अंदर पैठी प्रतिरोध की गहरी दुर्भावना से पूरी तरह परिचित था।

अत: अजीत  सिंह से दूरी बनाये रखना ही उसने उचीत  समझा।  अजीत सिंह ने इन्हें महामंत्री पद सम्भालने

व प्रशासन को अपने हाथ में लेने का आग्रह किया जिसे स्वीकार ने में दुर्गादास ने असमर्थता प्रगट करदी ,

अत :17 अप्रेल '1707 को इन्हें  की अनुमति मिल गई। यहाँ से दुर्गादास परिजनों सहित अपने जागीर के गाँव

सादड़ी चले गये, जो मेवाड़ के आधीन था।       

सोमवार, 13 अप्रैल 2015

मालाणी के वीर लेफ़्टिनेंट जनरलहनुतसिंहजी जसाेल

समस्त भारतवर्ष और राजपूताने के लिए अपूर्णीय क्षति------- राजपूताने के गौरव बाड़मेर व मालाणी के वीर लेफ़्टिनेंट जनरल
हनुतसिंहजी जसाेल जी का निधन हो गया है---------


सन् 1971 के भारत पाकिस्तान युद्ध में महावीर चक्र विजेता जिन्हाेने अद्वितीय रणनीती से पाकिस्तान के 48 से अधिक टेंकाे काे नेस्तानाबूद कर दिया था।इस युद्ध के कारण ही भारतीय सेना लाहौर को घेरने में सफल हुई थी जिससे 1971 की लड़ाई में भारत पाकिस्तान के शकरगढ़ क्षेत्र में विजयी हुआ था।
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जीवन परिचय-----
हणूत सिंह राठौड़ जसोल रावल मल्लिनाथ वंशज थे,उनका वंश राठौड़ो के वरिष्ठ शाखा महेचा राठौड़ है,उनके पिता lt .col अर्जुन सिंह जी थे,इनका जन्म 6  जुलाई 1933 को हुआ था,ये जीवन भर अविवाहित रहे और सती माता रूपकंवर बाला गांव के परम भक्तों में थे,इन्हे 28 दिसंबर 1952 को भारतीय सेना में कमीशन प्राप्त हुआ था,आज़ाद भारत के 12 महानतम जनरलाें में शामिल और भारतीय फाैज में जनरल हनुत के नाम से famousजनरल साब अभी देहरादून में रह रहे थे।पूर्व केन्द्रीय मंत्री जसवंतसिंहजी के सगे चचेरे भाई जनरल हनुत आध्यात्मिक साधना में लीन रहते थे।
सन् 1971 के भारत पाकिस्तान युद्ध में इन्हे असाधारण वीरता के लिए महावीर चक्र प्रदान किया गया था,वे FLAG HISTORY OF ARMOURED CORP के अधिकृत लेखक थे.
इन्हे परम विशिस्ट सेवा मेडल PVSM भी दिया गया था,
31 जुलाई 1991 में वे रिटायर हो गए.
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1971 का भारत पाकिस्तान युद्ध-------
लेफिनेंट कर्नल(तत्कालीन) हणूत सिंह राठौड़ ने इस युद्ध में 47 इन्फेंट्री ब्रिगेड को कमांड किया था,इस युद्ध में जिन क्षेत्रों में सबसे घमासान युद्ध हुआ था उनमे शकरगढ़ भी एक था.
लेफिनेंट कर्नल(तत्कालीन) हणूत सिंह की 47 इन्फेंट्री ब्रिगेड को शकरगढ़ सेक्टर में बसन्तर नदी के पास तैनात किया गया था,पाकिस्तान ने इस नदी में बहुत सी लैंड माइंस लगा रखी थी,
16 दिसंबर 1971 के दिन हणूत सिंह की कमांड में सेना ने नदी को सफलता पूर्वक पार किया,पाकिस्तान ने दो दिन लगातार टैंको से हमले किये,
लेफिनेंट कर्नल(तत्कालीन) हणूत सिंह ने अपनी सुरक्षा की परवाह किये बिना एक खतरनाक सेक्टर से दूसरे खतरनाक सेक्टर में जाकर सेना का नेतृत्व और मार्गदर्शन किया।
इस युद्ध में इनके नेतृत्व में भारतीय सेना ने पाकिस्तान के 48 टैंक ध्वस्त कर दिए,और पाकिस्तान का आक्रमण विफल कर दिया।
उन्होंने आश्चर्यजनक वीरता, नेतृत्व और कर्तव्यपरायणता का परिचय दिया और इस विजय के फलस्वरूप हणूत सिंह को महावीर चक्र से सम्मानित किया गया.……
पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वी के सिंह ने अपनी पुस्तक LEADERSHIP IN THE INDIAN ARMY
में हणूत सिंह जी के बारे में लिखा है कि.……
"Hanut will be remembered as one of the finest armour commanders of the indian army.His simplicity,courage,boldness,high sense of moral values and professionalism will always be a source of inspiration for generations of officers to come"
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आज दिनांक 11 अप्रैल को वीर सेनानायक लेफ्टिनेंट जनरल हणूत सिंह राठौड़(जसोल) जी का निधन हो गया,
दिवंगत आत्मा को शत शत नमन----
जय हिन्द,जय राजपूताना,जय क्षात्र धर्म
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सोर्स-----
1 -श्री राजेन्द्र सिंह जी राठौड़ बीदासर कृत राजपूतो की गौरव गाथा पृष्ठ संख्या 313 -316
2-जनरल वी के सिंह कृत  "LEADERSHIP IN THE INDIAN ARMY"-sage publications new delhi.
पोस्ट सौजन्य से----राजपूताना सोच और क्षत्रिय इतिहास

Guru govind singh and battle of

धरती की सबसे मंहंगी जगह सरहिंद (पंजाब), जिला फतेहगढ़ साहब में है, यहां पर श्री गुरुगोबिंद सिंह जी के छोटे
साहिबजादों का अंतिम संस्कार
किया गया था।
सेठ दीवान टोंडर मल ने
यह जगह 78000 सोने की मोहरे (सिक्के)
जमीन पर फैला कर मुस्लिम बादशाह से ज़मीन खरीदी थी। सोने की कीमत के मुताबिक इस 4 स्कवेयर मीटर जमीन
की कीमत 2500000000 (दो अरब पचास
करोड़) बनती है। दुनिया की सबसे मंहंगी जगह खरीदने का रिकॉर्ड आज सिख धर्म के इतिहास में दर्ज करवाया गया है। आजतक दुनिया के
इतिहास में इतनी मंहंगी जगह
कही नही खरीदी गयी।

दुनिया के इतिहास में ऐसा युद्ध ना कभी किसी ने पढ़ा होगा ना ही सोचा होगा, जिसमे 10 लाख
की फ़ौज का सामना महज 42 लोगों के साथ हुआ था और जीत
किसकी होती है उन 42 सूरमो की !
यह युद्ध 'चमकौर युद्ध' (Battle of Chamkaur) के नाम
से भी जाना जाता है जो कि मुग़ल योद्धा वज़ीर खान
की अगवाई में 10 लाख की फ़ौज का सामना सिर्फ 42
सिखों के सामने 6 दिसम्बर 1704 को हुआ जो की गुरु
गोबिंद सिंह जी की अगवाई में
तैयार हुए थे !
नतीजा यह निकलता है की उन 42 शूरवीर की जीत होती है
जो की मुग़ल हुकूमत की नीव जो की बाबर ने रखी थी , उसे जड़ से उखाड़ दिया और भारत को आज़ाद भारत का दर्ज़ा दिया।
औरंगज़ेब ने भी उस वक़्त गुरु गोबिंद सिंह जी के आगे
घुटने टेके और मुग़ल राज का अंत हुआ हिन्दुस्तान से ।
तभी औरंगजेब ने एक प्रश्न किया गुरुगोबिंद सिंह जी के सामने। कि यह कैसी फ़ौज तैयार की आपने जिसने 10 लाख की फ़ौज को उखाड़ फेंका।
गुरु गोबिंद सिंह जी ने जवाब दिया
"चिड़ियों से मैं बाज लडाऊं , गीदड़ों को मैं शेर बनाऊ।"
"सवा लाख से एक लडाऊं तभी गोबिंद सिंह नाम कहाउँ !!"
गुरु गोबिंद सिंह जी ने जो कहा वो किया, जिन्हे आज हर कोई
शीश झुकता है , यह है हमारे भारत की अनमोल विरासत जिसे हमने कभी पढ़ा ही नहीं !
अगर आपको यकीन नहीं होता तो एक बार जरूर गूगल
में लिखे 'बैटल ऑफ़ चमकौर' और सच आपको पता लगेगा ,
आपको अगर थोड़ा सा भी अच्छा लगा और आपको भारतीय होने का गर्व है
तो जरूर इसे आगे शेयर करे जिससे की हमारे भारत के
गौरवशाली इतिहास के बारे में दुनिया को पता लगे !

��जो बोले सौ निहाल
     सत् श्री अकाल��
��वाहेगुरु जी का खालसा,
     वाहेगुरु जी की फतेह��