शुक्रवार, 17 अप्रैल 2015

वीर दुर्गादास राठोड़

                                    
माई एह्ड़ा पूत जण , जेहडा दुर्गादास !
मार मंडासो थामियो , बिण खम्बे आकास !!

दुर्गादास राठोड़ अपने ज़माने के असाधारण योद्धा , नितिज्ञ व प्रतिभावान व्यक्ति थे।इनका

जन्म 13 अगस्त ,1638 ई . आसकरण जी की तीसरी पत्नी के गर्भ से सालवा में हुआ। इनका माँ

जयमल केलणोत भाटी की पोती थी ,जिसकी वीरता के किस्से प्रसिद्ध थे और इसी से प्रभावित हो कर

आसकरण जी ने इस भटियानी से विवाह किया था।किन्तु भटियानी जी के  उग्र स्वभाव की वजह से ज्यादा

दिन निभ नही पाई। सो पारिवारिक तनाव को कम करने के लिये आसकरण जी ने  माँ बेटो के रहने की

व्यवस्था सालवा से 2कोस की दूरी पर लूँणवां गाव में कर  दी। यही दुर्गादास जी का बचपन बीता और इसी

गाँव में इन्हें शिक्षा भी मिली।आजीविका के लिए जो  थोड़ी बहुत  फसल होती थी उसी पर निर्भर थे।

आयु में बहुत छोटे होते हुए भी दुर्गादास जी अपनी माँ की तरह बहुत साहसी व इरादों के पक्के थे।

आसकरणजी ने अपने दो बड़े पुत्रों के लिए जोधपुर राज्य  में नोकरी की व्यवस्था करदी , लेकिन दुर्गादास जी

बिलकुल उपेक्षित ही रहे।किशोरावस्था को पार कर जाने के बाद भी वह अपने उसी गाँव में अज्ञात जीवन

बिता रहे  थे।

       परन्तु संयोगवश सन 1655 ई . के लगभग एक घटना ने अचानक दुर्गादास राठोड के जीवन और भाग्य

को बिलकुल ही बदल दिया। अपने गाँव में ही इन्होने जोधपुर राज के रबारी की हत्या ऊँटो  को चराने के मामले

को ले कर कर दी।जब महाराजा जसवन्त सिंह जी को मालूम पड़ा की यह हत्या आसकरण जी के पुत्र ने की है

तो महाराजा ने उन से स्पष्टीकरण मांगा। आसकरण जी ने उस गाँव में अपने पुत्र के होने से इनकार कर

दिया, परिणामस्वरूप दुर्गादास जी को महाराज के सामने  हाजिर होने का आदेश हुआ।  महाराजा के सामने

दुर्गादासजी ने अपना अपराध तो स्विकार कर लिया पर साथ ही इस को उचित ठहराते हुए  कहा की रबारी

की लापरवाही की वजह से ऊंट किसानो की खड़ी फसल को रूंद रहे थे ,और जब ऊँटो को बाहर निकाल ने के

लिए कहा गया तो उस ने बदतमीजी की और यहाँ तक की उस ने जोधपुर दुर्ग को भी बिना छत का सफेद खंडर

कहा जो असहनीय था। महाराजा जसवंत सिंह जी उन की निर्भीकता  व जोधपुर के प्रति निष्ठां से काफी

प्रभावित हुए व दुर्गादास जी को अपने पास रखलिया। इन्होने महाराजा का इतना विस्वास जीत लीया की

प्रत्यक अभियान में ये उन के रहने लगे।

इस घटना के करीब 2 वर्ष उपरांत बादसाह शांहजहां बीमार पड गया ,पुरे सम्राज्य में भांति भांति की अफवाहें

फैल ने लगी। दारा द्वारा सूचनाओं पर पाबंदी लगा देने से पूरे साम्राज्य में भ्रान्ति व अफवा फलने लगी। मुग़ल

साम्राज्य के सिंहासन के उतराधिकारी पद के लिए बड़े पैमाने पर युद्ध की तैयारियां होने लगी। बंगाल में शुजा

ने और गुजरात में मुराद ने स्वयम को सम्राट घोषित कर दिया।उधर दक्षिण में ओरंगजेब सारी स्थिति पर

नजर  रखे हुए प्रतीक्षा करता रहा।

इधर शाहजहाँ पूरी तरह स्वस्थ हो  चूका था। उसने अपने हाथ से तीनो शाजदाओं को पत्र लिखा,पर तीनो का

संदेह दूर नही हुआ।ओरंगजेब  दक्षिण से रवाना हो कर धरमत पंहुच गया ,इस की मुराद से सांठ गांठ हो गयी

दोनों की संयुक्त सेना 15 अप्रेल'1658 ई .को  उज्जैन से करीब 10 कोस दूर  धरमत पंहुच गयी जहाँ शाही सेना

  जसवंत सिंहजी के नेतृत्व में आगरा का रास्ता रोके हुए थी।   इस सेना में आसकरण जी व दुर्गादास दोनों थे।

16 अप्रेल'1658 ई . की प्रातः ही युद्ध शुरू हो गया ,ओरंगजेब के तोपखाने की भयंकर गोलाबारी से अग्रिम

पंक्ति में  जहाँ ज्यादा तर राजपूत थे भयंकर रक्तपात हुआ। यधपि इस शुरू की लड़ाई में शाही सेना की

विजय हुई किन्तु इस में राजपूत सरदारों में से अधिकांश अपनी शूरवीरता और पराक्रम के जोहर  दिखाते हुए

मारे  गये। कासिमखां के अधीन मुग़ल सेना ने राजपूतो की कोई सहायता नही की।आगे चलकर जब जसवंत

सिंह की सेना के कुछ  सेनानायक दूसरी तरफ मिलने लगे तो कुछ राजपूत सेनानायक भी मैदान छोड़ कर

चले गये। मराठा सेनानायक भी भाग खड़े हुए।

जसवंत सिंह अपने राठोड़ वीरों के साथ युद्ध में डटे रहे। आसकरण व दुर्गादास ने राठोड सेना की बागडोर

संभाल ली व जसवंत सिंह की तरफ केन्द्रित होती शत्रु सेना का डट कर प्रतिरोध किया दुर्गादास  असीम

बहादुरी का प्रदर्शन करते हुए घायल हो कर युद्ध भूमि में गिर  पड़े। कुम्भकर्ण सांदू  जो समकालीन कवि

है ने "रतनरासो " में लिखा  है "दुर्गादास राठोड ने एक के बाद एक चार  घोडों  की सवारी की और जब चारों

एक एक कर  के मारे गये तो अंत में वह पांच वे घोड़े पर सवार हुआ ,लेकिन यह पांचवा घोडा भी मारा गया।

तब तक न केवल उसके सारे हथियार  टूट चुके थे बल्कि उसका शरीर भी बुरी तरह से घायल हो चुका था।

अंतत:वह भी रणभूमि में गिर पड़ा।एसा लगता था जैसे एक और भीष्म शरसैया पर लेटा है।जसवंत सिंह के

आदेश से दुर्गादास को युद्ध भूमि से हटा लिया गया और जोधपुर भेज दिया। "

अत्यंत वीरता एवं कोशल से लड़ते हुए स्वयम जसवंत सिंह को भी  दो गहरे  घाव लगे। तब उन्होंने युद्ध में

खेत रहने की ठान ली।परन्तु दोपहर तक , जबकि विजय असम्भव दिखने लगी, आसकरण करनोत व दूसरे

राठोड सेना प्रमुखों ने महाराजा के घोड़े की लगाम पकडली और उसे युद्ध छेत्र से बाहर खींच ले गये।रतन सिंह

राठोड़ ने शेष सेना की बागडोर संभाल ली और अंतिम चरण के युद्ध में लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ।

                   इस समय से लेकर जसवंत सिंह जी के स्वर्गवास तक दुर्गादास  उनके प्रमुख सामन्तो में रहे।

जसवंत सिंह जी की मृत्यु 52 वर्ष की अवस्था में  जमरूद के थाने पर 28 नवम्बर '1678 ई . को हो गयी और

यहीं से दुर्गादास के जीवन का नया और महत्वपूर्ण अध्याय शुरू होता है। महाराजा जसवंत सिंह की मृत्यु के

समय उनका कोई भी पुत्र जीवित नही था। दो रानियाँ गर्भवती थी व पेशावर में उनके साथ  थी। इन

परिस्थितियों में  ओरंगजेब ने जोधपुर को खालसा कर लिया, इधर नागौर के राव इन्द्रसिंह ने जोधपुर पर

अपनी दावेदारी प्रस्तुत की क्यों की यह अमर सिंह का पोत्र था जो कि जसवंत सिंह के जेष्ठ भ्राता थे।

19 फरवरी 1679 ई .को दोनो रानियों के एक एक पुत्र पैदा हुआ , बड़े का नाम अजीतसिंह व छोटे का दलथ्म्भन

रखा गया। यह खबर ओरंगजेब को 27 फरवरी 1679 ई .को अजमेर में मिली जहाँ वह कैम्प किये हुआ था।

उसके मुंह से बरबस निकलपड़ा- "   आदमी कुछ सोचता है खुदा ठीक उसके उल्टा करता है।"

             लाहोर से दोनों महारानियों और राजकुमारों के साथ मारवाड़ का दल दिल्ली के लिए 28 फरवरी को

रवाना  हुआ। इस दल की रक्षा के लिए पेशावर से ही जो सरदार साथ थे उनमे दुर्गादास राठोड़ विशेष प्रतिष्टित

व्यक्ति थे। अप्रेल में यह दल दिल्ली पंहुचा और जोधपुर हवेली में रुका। जोधपुर से भी पंचोली केशरी सिंह ,

भाटी रघुनाथ ,राठोड रूप सिंह उदावत और अन्य कई सरदार दिल्ली पहुंच गये।मई माह में इंद्र सिंह को

जोधपुर का राजा बना दिया और उस के साथ ही महारानियो व राजकुमारों को हवेली खाली कर किशनगढ़ की

हवेली में स्थानांतरिक किया गया।  महारानियों व उनके पुत्रों के प्राणों के संकट को देखते हुए राठोड

रणछोड़दास ,भाटी रघुनाथ ,राठोड रूप सिंह ,दुर्गादास राठोड आदि  मारवाड़  के सरदारों ने राजकुमारों को

चुपके से दिल्ली से निकाल लेने की योजना बनाई।

                            बलुन्दा के राठोड मोहकम सिंह , खिची मुकंददास तथा मारवाड़ के कुछ अन्य सरदारों ने

बादशाह से मारवाड़ जाने की अनुमति मांगी तो ओरंगजेब को कुछ राहत मिली ,  मोहकम सिंह  व उनका

परिवार  पेशावर से साथ आया था। मोहकम सिंह के एक बच्चे को दोनों राजकुमारों से बदल दिया।इस प्रकार

बड़े कड़े पहरे के बीच दोनों राजकुमारों को दिल्ली से सकुशल बाहर निकाल दिया। दिल्ली में 140 सरदार ,725

घुड़सवार व 150 अन्य कर्मचारी रह गये।

                         इस बात से अनभिग्य  ओरंगजेब ने अपना शिकंजा कसना शुरू किया, और आदेश दिया की

राजकुमारों  को शाही हरम में रख कर शिक्षा दी जाएगी। राठोड़ो ने इसका विरोध किया, ओरंगजेब इस से

भड़क उठा। उसने कोतवाल फोलादखान को आदेश दिया की वे जसवंत सिंह की दोनों महारानियों व

राजकुमारों को रूपसिंह राठोड की हवेली उठाकर नूरगढ़ ले जायें ,राठोड अगर विरोध करे तो उन्हें उचित दंड

दिया जावे। 16 जुलाई 1679 ई . को रूपसिंह की हवेली को एक बड़ी फोज के साथ घेर लिया गया।मृत्यु प्रेमी

राजपूतों को समझाने का काफी प्रयास किया गया, लेकिन सफलता नही मिली। अब मुख्य उदेश्य यही था

कि दोनों महारानियो को दिल्ली से सुरक्षित निकल ले जाये व प्रतिरोध करते हुए अधिक से अधिक मारवाड़ के

सरदारों व घुड़सवारों को बचाया जाये। सझने बुझाने से कोई बात नही बनी और लड़ाई शुरू हो गई। प्रसिद्ध

इतिहासकार यदुनाथ सरकार लिखते है -" जब दोनों और से गोलिया चल रही थी तब जोधपुर के एक भाटी

सरदार रघुनाथ ने एक सो वफादार सैनकों के साथ हवेली के एक तरफ से धावा बोला।चेहरों पर मृत्यु की सी

गंभीरता और हाथों में भाले  लिये वीर राठोड शत्रु पर टूट पड़े।" उनके भयानक आक्रमण से शाही सैनिक

घबरा उठे। क्षणिक हडबडाहट का लाभ उठा कर दुर्गादास  और वफादार घुड़सवारों का दल पुरष वेशी दोनों

महारानियो के साथ निकल कर मारवाड़ की और बढ़ने लगे। " डेढ़ घंटे तक रघुनाथ  भाटी दिल्ली की गलियों

को रक्त रंजित करता रहा और अंत में अपने 70 वीरों के साथ मारा गया।"  अब शाही सैनिको का दल दुर्गादास
के पीछे लगा जो अब तक  करीब 4-5 कोस  की दूरी तय  कर  चुके थे। जब शाही सैनिक दल नजदीक आने

लगा तो अब उन को रोकने की जिम्मेदारी  रणछोड दास जोधा की थी। उसने कुछ सैनिको के साथ  शाही

घुड़सवारों को रोक कर रानियों को बचाने  के लिए बहुमूल्य समय अर्जित किया। जब उन का विरोध शांत हो

गया तब मुग़ल सवार उनकी लाशों को रोंद कर बचे हुए दल के पीछे भागे।

                    अब दुर्गादास व उनका छोटा सा दल वापस मुडकर पीछा करने वालों का सामना करने के लिए

विवश हो गये।वहां भयानक युद्ध हुआ और मुग़ल सैनिकों को कुछ देर के लिए रोका गया,  किन्तु स्थिति काबू

से बहार हो चुकी थी। दिल्ली स्थित हवेली से बाहर निकलते समय दोनो महारानियों को भी युद्ध करना पड़ा

था और वे जख्मी हो चुकी थी।पांचला के चन्द्रभान जोधा जिस पर महारानियों का दायत्व था , के सामने अब

कोई विकल्प नही रहा और उसने दोनों के सर काट दिए। उसने भी भयंकर युद्ध करते हुए मातृभूमि के लिए

प्राण निछावर कर दिए।

             शाम हो चुकी थी। मुग़ल सैनिक तीन  भयानक मुठभेड़ो से थक कर पीछे लोट गये व घायल दुर्गादास

व बचे हुए 7 सैनिको का पिच्छा  नही किया। दुर्गादास ने महारानियो की पार्थिव देह को यमुना में प्रवाहित

कर दिया।

         इंद्र सिंह को राजा बना देने से राठोड़ो में रोष फैल गया। 23 जुलाई '1679 ई . को जब अजीत सिंह को

लेकर राठोड  दुर्गादास , मुकन्द दास  खिची आदि मारवाड़ पहुंच गये,इस खबर से विरोध और बढ़ा। उस समय

दुर्गादास जो सालवा में स्वास्थ्य लाभ कर रहा था स्वाभाविक रूप से राठोड सैन्य शक्तियों का केंद्र तथा

मार्गदर्शक बन गया।

27 वर्ष के सतत संघर्ष के उपरांत 18 मार्च 1707 ई . का अजित सिंह का कब्ज़ा जोधपुर पर हो गया और इस

प्रकार  अनवरत प्रयत्न के बाद दुर्गादास राठोड की जीवन साधना सफल हुई। मारवाड़ पराये शासन से मुक्त

हो एक बार फिर अपने शासकों के आधीन आ गया।परन्तु सफलता की इस घड़ी में भी दुर्गादास राठोड

अजीतसिंह के अस्थिर स्वभाव और उसके अंदर पैठी प्रतिरोध की गहरी दुर्भावना से पूरी तरह परिचित था।

अत: अजीत  सिंह से दूरी बनाये रखना ही उसने उचीत  समझा।  अजीत सिंह ने इन्हें महामंत्री पद सम्भालने

व प्रशासन को अपने हाथ में लेने का आग्रह किया जिसे स्वीकार ने में दुर्गादास ने असमर्थता प्रगट करदी ,

अत :17 अप्रेल '1707 को इन्हें  की अनुमति मिल गई। यहाँ से दुर्गादास परिजनों सहित अपने जागीर के गाँव

सादड़ी चले गये, जो मेवाड़ के आधीन था।       

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें