मंगलवार, 4 जुलाई 2023

दामोदर राव: झांसी की रानी का पुत्र

झांसी के अंतिम संघर्ष में महारानी की पीठ पर बंधा उनका बेटा दामोदर राव (असली नाम आनंद राव) सबको याद है. रानी की चिता जल जाने के बाद उस बेटे का क्या हुआ
वो कोई कहानी का किरदार भर नहीं था, 1857 के विद्रोह की सबसे महत्वपूर्ण कहानी को जीने वाला राजकुमार था जिसने उसी गुलाम भारत में जिंदगी काटी, जहां उसे भुला कर उसकी मां के नाम की कसमें खाई जा रही थी.
अंग्रेजों ने दामोदर राव को कभी झांसी का वारिस नहीं माना था, सो उसे सरकारी दस्तावेजों में कोई जगह नहीं मिली थी. ज्यादातर हिंदुस्तानियों ने सुभद्रा कुमारी चौहान के कुछ सही, कुछ गलत आलंकारिक वर्णन को ही इतिहास मानकर इतिश्री कर ली.
1959 में छपी वाई एन केलकर की मराठी किताब ‘इतिहासाच्य सहली’ (इतिहास की सैर) में दामोदर राव का इकलौता वर्णन छपा.
महारानी की मृत्यु के बाद दामोदार राव ने एक तरह से अभिशप्त जीवन जिया. उनकी इस बदहाली के जिम्मेदार सिर्फ फिरंगी ही नहीं हिंदुस्तान के लोग भी बराबरी से थे.
आइये, दामोदर की कहानी दामोदर की जुबानी सुनते हैं –
15 नवंबर 1849 को नेवलकर राजपरिवार की एक शाखा में मैं पैदा हुआ. ज्योतिषी ने बताया कि मेरी कुंडली में राज योग है और मैं राजा बनूंगा. ये बात मेरी जिंदगी में सबसे दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से सच हुई. तीन साल की उम्र में महाराज ने मुझे गोद ले लिया. गोद लेने की औपचारिक स्वीकृति आने से पहले ही पिताजी नहीं रहे.
मां साहेब (महारानी लक्ष्मीबाई) ने कलकत्ता में लॉर्ड डलहॉजी को संदेश भेजा कि मुझे वारिस मान लिया जाए. मगर ऐसा नहीं हुआ.
डलहॉजी ने आदेश दिया कि झांसी को ब्रिटिश राज में मिला लिया जाएगा. मां साहेब को 5,000 सालाना पेंशन दी जाएगी. इसके साथ ही महाराज की सारी सम्पत्ति भी मां साहेब के पास रहेगी. मां साहेब के बाद मेरा पूरा हक उनके खजाने पर होगा मगर मुझे झांसी का राज नहीं मिलेगा.
इसके अलावा अंग्रेजों के खजाने में पिताजी के सात लाख रुपए भी जमा थे. फिरंगियों ने कहा कि मेरे बालिग होने पर वो पैसा मुझे दे दिया जाएगा.
मां साहेब को ग्वालियर की लड़ाई में शहादत मिली. मेरे सेवकों (रामचंद्र राव देशमुख और काशी बाई) और बाकी लोगों ने बाद में मुझे बताया कि मां ने मुझे पूरी लड़ाई में अपनी पीठ पर बैठा रखा था. मुझे खुद ये ठीक से याद नहीं. इस लड़ाई के बाद हमारे कुल 60 विश्वासपात्र ही जिंदा बच पाए थे.
नन्हें खान रिसालेदार, गनपत राव, रघुनाथ सिंह और रामचंद्र राव देशमुख ने मेरी जिम्मेदारी उठाई. 22 घोड़े और 60 ऊंटों के साथ बुंदेलखंड के चंदेरी की तरफ चल पड़े. हमारे पास खाने, पकाने और रहने के लिए कुछ नहीं था. किसी भी गांव में हमें शरण नहीं मिली. मई-जून की गर्मी में हम पेड़ों तले खुले आसमान के नीचे रात बिताते रहे. शुक्र था कि जंगल के फलों के चलते कभी भूखे सोने की नौबत नहीं आई.
असल दिक्कत बारिश शुरू होने के साथ शुरू हुई. घने जंगल में तेज मानसून में रहना असंभव हो गया. किसी तरह एक गांव के मुखिया ने हमें खाना देने की बात मान ली. रघुनाथ राव की सलाह पर हम 10-10 की टुकड़ियों में बंटकर रहने लगे.
मुखिया ने एक महीने के राशन और ब्रिटिश सेना को खबर न करने की कीमत 500 रुपए, 9 घोड़े और चार ऊंट तय की. हम जिस जगह पर रहे वो किसी झरने के पास थी और खूबसूरत थी.
देखते-देखते दो साल निकल गए. ग्वालियर छोड़ते समय हमारे पास 60,000 रुपए थे, जो अब पूरी तरह खत्म हो गए थे. मेरी तबियत इतनी खराब हो गई कि सबको लगा कि मैं नहीं बचूंगा. मेरे लोग मुखिया से गिड़गिड़ाए कि वो किसी वैद्य का इंतजाम करें.
मेरा इलाज तो हो गया मगर हमें बिना पैसे के वहां रहने नहीं दिया गया. मेरे लोगों ने मुखिया को 200 रुपए दिए और जानवर वापस मांगे. उसने हमें सिर्फ 3 घोड़े वापस दिए. वहां से चलने के बाद हम 24 लोग साथ हो गए.
ग्वालियर के शिप्री में गांव वालों ने हमें बागी के तौर पर पहचान लिया. वहां तीन दिन उन्होंने हमें बंद रखा, फिर सिपाहियों के साथ झालरपाटन के पॉलिटिकल एजेंट के पास भेज दिया. मेरे लोगों ने मुझे पैदल नहीं चलने दिया. वो एक-एक कर मुझे अपनी पीठ पर बैठाते रहे.
हमारे ज्यादातर लोगों को पागलखाने में डाल दिया गया. मां साहेब के रिसालेदार नन्हें खान ने पॉलिटिकल एजेंट से बात की.
उन्होंने मिस्टर फ्लिंक से कहा कि झांसी रानी साहिबा का बच्चा अभी 9-10 साल का है. रानी साहिबा के बाद उसे जंगलों में जानवरों जैसी जिंदगी काटनी पड़ रही है. बच्चे से तो सरकार को कोई नुक्सान नहीं. इसे छोड़ दीजिए पूरा मुल्क आपको दुआएं देगा.
फ्लिंक एक दयालु आदमी थे, उन्होंने सरकार से हमारी पैरवी की. वहां से हम अपने विश्वस्तों के साथ इंदौर के कर्नल सर रिचर्ड शेक्सपियर से मिलने निकल गए. हमारे पास अब कोई पैसा बाकी नहीं था.
सफर का खर्च और खाने के जुगाड़ के लिए मां साहेब के 32 तोले के दो तोड़े हमें देने पड़े. मां साहेब से जुड़ी वही एक आखिरी चीज हमारे पास थी.
इसके बाद 5 मई 1860 को दामोदर राव को इंदौर में 10,000 सालाना की पेंशन अंग्रेजों ने बांध दी. उन्हें सिर्फ सात लोगों को अपने साथ रखने की इजाजत मिली. ब्रिटिश सरकार ने सात लाख रुपए लौटाने से भी इंकार कर दिया.
दामोदर राव के असली पिता की दूसरी पत्नी ने उनको बड़ा किया. 1879 में उनके एक लड़का लक्ष्मण राव हुआ.दामोदर राव के दिन बहुत गरीबी और गुमनामी में बीते। इसके बाद भी अंग्रेज उन पर कड़ी निगरानी रखते थे। दामोदर राव के साथ उनके बेटे लक्ष्मणराव को भी इंदौर से बाहर जाने की इजाजत नहीं थी।
इनके परिवार वाले आज भी इंदौर में ‘झांसीवाले’ सरनेम के साथ रहते हैं. रानी के एक सौतेला भाई चिंतामनराव तांबे भी था. तांबे परिवार इस समय पूना में रहता है. झाँसी के रानी के वंशज इंदौर के अलावा देश के कुछ अन्य भागों में रहते हैं। वे अपने नाम के साथ झाँसीवाले लिखा करते हैं। जब दामोदर राव नेवालकर 5 मई 1860 को इंदौर पहुँचे थे तब इंदौर में रहते हुए उनकी चाची जो दामोदर राव की असली माँ थी। बड़े होने पर दामोदर राव का विवाह करवा देती है लेकिन कुछ ही समय बाद दामोदर राव की पहली पत्नी का देहांत हो जाता है। दामोदर राव की दूसरी शादी से लक्ष्मण राव का जन्म हुआ। दामोदर राव का उदासीन तथा कठिनाई भरा जीवन 28 मई 1906 को इंदौर में समाप्त हो गया। अगली पीढ़ी में लक्ष्मण राव के बेटे कृष्ण राव और चंद्रकांत राव हुए। कृष्ण राव के दो पुत्र मनोहर राव, अरूण राव तथा चंद्रकांत के तीन पुत्र अक्षय चंद्रकांत राव, अतुल चंद्रकांत राव और शांति प्रमोद चंद्रकांत राव हुए।
दामोदर राव चित्रकार थे उन्होंने अपनी माँ के याद में उनके कई चित्र बनाये हैं जो झाँसी परिवार की अमूल्य धरोहर हैं। 
उनके वंशज श्री लक्ष्मण राव तथा कृष्ण राव इंदौर न्यायालय में टाईपिस्ट का कार्य करते थे ! अरूण राव मध्यप्रदेश विद्युत मंडल से बतौर जूनियर इंजीनियर 2002 में सेवानिवृत्त हुए हैं। उनका बेटा योगेश राव सॅाफ्टवेयर इंजीनियर है। वंशजों में प्रपौत्र अरुणराव झाँसीवाला, उनकी धर्मपत्नी वैशाली, बेटे योगेश व बहू प्रीति का धन्वंतरिनगर इंदौर में सामान्य नागरिक की तरह माध्यम वर्ग परिवार हैं। 

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गुरुवार, 5 जनवरी 2023

विभिन्न राजपूत जातियां

भारत के विभिन्न हिस्सों में अनेक राजपूत जातियां शासन करती रही है उनकी उत्पत्ति और कर्म स्थली इस प्रकार है:

मंगलवार, 30 अगस्त 2022

राव जैता



जोधपुर राज्य के इतिहास में  राव कुंपा और उनके चचेरे भाई राव जैता  का नाम प्रसिद्ध  है । अपनी वीरता, शौर्य और  राष्ट्रभक्ति के लिए, उनका नाम भारत के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा है |
राव कुंपा जोधपुर के महाराजा राव जोधा के भाई  राव अखैराज के पौत्र व राव मेहराज के पुत्र थे इनका जन्म वि.सं. 1559 कृष्ण द्वादशी माह को राडावास धनेरी (सोजत) गांव में मेहराज जी की रानी कर्मेती भटियाणी जी के पुत्र के रूप में हुआ था |

*राव जैता जी मेहराज जी के भाई राव पंचायण जी के  पुत्र थे अपने पिता के निधन के समय राव कुंपा की आयु एक वर्ष थी,बड़े होने पर ये जोधपुर के शासक राव मालदेव की सेवा में चले गए |*
राव मालदेव अपने समय के राजस्थान के शक्तिशाली शासक थे राव कुंपा व राव जैता जेसे वीर उनके सेनापति थे,मेड़ता व अजमेर के शासक विरमदेव को पराजित करके मालदेव की आज्ञा से राव कुंपा व राव जैता ने अजमेर व मेड़ता पर अधिकार कर लिया था |
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राव कुंपा, राव जैता और राव विरमदेव:-
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अजमेर व मेड़ता छीन जाने के बाद #राव_विरमदेव ने डीडवाना पर अधिकार कर लिया किन्तु राव कुंपा व राव जैता ने राव विरमदेव को डीडवाना में फिर जा घेरा और भयंकर युद्ध के बाद डीडवाना से भी विरमदेव को अपना अधिकार छोड़ना पड़ा, राव विरमदेव भी अद्वितीय वीर योद्धा थे |
डीडवाना के युद्ध में राव विरमदेव की वीरता देख राव जैता ने कहा था कि यदि राव मालदेव व विरमदेव शत्रुता त्याग कर एक हो जाये तो हम पूरे हिन्दुस्थान पर विजय प्राप्त कर सकतें है।
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राव कुंपा, राव जैता और शेरशाह सूरी ( गिरी सुमेल युद्ध ) .
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राव कुंपा व राव जैता ने राव मालदेव की और से कई युद्धों में भाग लेकर विजय प्राप्त की।
शेर शाह सूरी के प्रपंच में फंसकर राव मालदेव के हृदय में अपने सामंतों के प्रति अविश्वाश की भावना उत्पन्न हो जाने पर वो युद्धभूमि से जाने लगे और उन्होंने राव जैता व राव कुंपा को भी आदेशित किया तब दोनों प्रखर योद्धाओं ने ये प्रतिउत्तर दिया:

उठा आंगली धरती रावजी सपूत होए*
*खाटी  थी तिण दिशा रावजी फुरमायो सू म्हे कियो*
*ने अठा आन्गली धरती रावले माइतें*
*नै म्हारे माइते भेला हुय खाटी हुती*
*आ धरती छोड ने म्है निरसण रा नहीं*
*अर्थात( वँहा तक की भूमि रावजी ने सपूत होकर  प्राप्त की थी अतः उस दिशा में आपके कहने पर हम पीछे हट गए परंतु  यँहा से आगे की  भूमि आपके और हमारे महान पूर्वजों ने  मिलकर प्राप्त की थी अतः यह पावन धरा छोड़ कर हम निकलने वाले नहीं)

अब पीछे आना संभव नहीं है
कुपां जी ने कहा :
पड़ियो  सूत पाराथ , उड़ियोज्य्ं भिमय ऊ भय
भिड़यो जुद्द भारत कदे न मुड़ीयो  कुंपसि

युद्धभूमि में वीरगति प्राप्त होने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है।

मरुधरा रा सिर मोड तोड़ घणा तुरका तणा
जैत झुंझार मोड कटपड़ीयो  रण  कुपसी

इस युद्ध में बादशाह की अस्सी हजार सेना के सामने राव कुंपा व राव जैता मात्र दस हजार सेनिकों के साथ थे, भयंकर युद्ध में बादशाह की सेना के चालीस हजार सैनिकों को मारकर राव कुंपा व राव जैता ने अपने दस हजार सैनिकों के साथ वीर गति प्राप्त की व मातृभूमि की रक्षार्थ   युद्ध में अपने प्राण न्योछावर करने की अपनी क्षत्रियोचित परंपरा का निर्वाह किया।
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*"अमर लोक बसियों अडर,रण चढ़ कुंपो राव ।
*सोले सो बद पक्ष में चेत पंचमी चाव ।।
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उपरोक्त युद्ध में चालीस हजार सैनिक खोने के बाद शेरशाह सूरी आगे जोधपुर पर आक्रमण करने का साहस नहीं कर सका व विचलित होकर शेरशाह ने कहा:

बोल्यो सूरी बैन यूँ , गिरी घाट घमसान
मुठी खातर बाजरी,खो देतो हिंदवान

कि मुट्ठी भर बाजरे कि खातिर मैं दिल्ली की सल्तनत खो बैठता,और इसके बाद शेरशाह सूरी ने कभी राजपूताना पर आक्रमण करने का साहस नही किया।

जोधाने माल अजेगढ़ जैतो, कुंप विकपुर राज करे।।
लाखां लोग रह ज्यां लारे, दिल्ली आगरों दोहू डरे।।

कीरत जैते कुंपरी इल आ अजै अखंड।
मरिया पग रोपे मरद, मारवाड़ नै मंड।।

उनकी प्रेरक स्थली पर प्रतिवर्ष 5 जनवरी को सुमेल गिरी बलिदान दिवस के रूप में भव्य समारोह का आयोजन किया जाता है और इन राष्ट्रनायकों को श्रद्धासुमन अर्पित किये जाते है। *हमारे ऐसे राष्ट्रवीरों के बारे में सही ही कहा गया है: भवन, महल, किले, प्रस्तर लेख आदि समय के साथ लुप्त हो जायेंगे किन्तु इन महान योद्धाओं की शौर्य गाथाएं युगों-युगों तक राष्ट्रभक्तों के हृदय में राष्ट्रभक्ति की ज्वाला का संचार करती रहेगी।

-गिरी का युद्ध ५ जनवरी, १५४४ ई. को जोधपुर-मारवाड़ के शासक राव मालदेव के सेनानायक राव जैता व राव कूँपा राठौड़ के नेतृत्व में दस हजार वीर योद्धा व अफगान शासक शेरशाह सूरी की अस्सी हजार की विशाल सेना के बीच सुमेल-गिरी स्थान पर लड़ा गया था। इस युद्ध में बोरवाड़ (मगरांचल) के शासक *नरा चौहान (नाहरसिंह)* के नेतृत्व में तीन हजार राजपूत सैनिकों के नेतृत्व में युद्ध में अद्वितीय योगदान दिया।

प्रस्तावना:
शेरशाह सूरी को "एक मुट्ठी भर बाजरे की उक्ति  के लिए विवश करने वाले मारवाड़ के रण बांकुरो के शौर्य की साक्षी रही सुमेल-गिरी रणभूमि इतिहास के पन्नों में अपने गौरव के लिए जानी जाती है। सन् १५३१ ई. में राव मालदेव राठौड़ मारवाड़ के शासक बने। वे अपने समय के सर्वाधिक शक्तिशाली शासक थे‌। उन्होंने अपने साम्राज्य का विस्तार नागौर, मेड़ता, अजमेर, जालोर, सिवाणा, भाद्राजून, बीकानेर तक किया। मुगल शासक हुमायूं, शेरशाह सूरी से हारने के बाद इनकी सहायता लेने के उद्देश्य से १५४२ ई. में मारवाड़ आया। राव मालदेव के साम्राज्य विस्तार और हुमायूं का साथ देने से दिल्ली का अफगान शासक शेरशाह अत्यधिक चितिंत था। मारवाड़ की शक्ति को नष्ट करने की दृष्टि से शेरशाह ने १५४३ ई. में ८० हजार सैनिकों की एक विशाल सेना लेकर फतेहपुर मेड़ता होते हुए सुमेल आ पहुंचा। इधर सूचना मिलते ही राव मालदेव भी अपने सैनिकों के साथ गिरी आ पहुंचे और पीपाड़ को संचालन केंद्र बनाया। इसी समय इस क्षेत्र के नरा चौहान के नेतृत्व में स्थानीय लोग भी राव मालदेव की सहायता हेतु आ डंटे। प्रतिदिन दोनों सेनाओं में छुट-पुट भिड़ंत होती, जिसमें शेरशाह की सेना की हानि होती। कई दिनों की अनिर्णीत भिड़ंतो से शेरशाह तंग आ गया और उसने छुट-पुट लड़ाइयां बन्द कर दी। इस तरह कई दिनों तक सेनाएं आमने-सामने तनी रही। शेरशाह के अनिर्णय की स्थिति मे लौट पाना भी असंभव था,ऐसी स्थिति में उसने छल कपट का आश्रय लिया। शेरशाह सूरी ने राव मालदेव के सामंतों में फिरोजशाही मोहरें भिजवाई और नई ढालों के भीतर शेरशाह के फरमानों को सिलवा दिया था, उनमें लिखा था कि सामंत, राव मालदेव को बंदी बनाकर शेरशाह को सौंप देंगे। यह जाली पत्र कुटिलता से राव मालदेव के पास भी पहुंचा दिये थे। इससे राव मालदेव को अपने सेनापतियों पर सन्देह हो गया। राव मालदेव ने जोधपुर की सुरक्षा को देखते हुए युद्ध के लिए मना कर दिया और राव जैता व राव कूंपा को भी पीछे हटने का आदेश दिया, किन्तु दोनों ने पीछे हटने से मना  कर दिया। फिर भी राव मालदेव नहीं माने और सारे सैनिक लेकर पुनः जोधपुर चले गए। इस तरह मारवाड़ की सेना बिखर गई।

सेना का गठन :
अब केवल राव जैता व राव कूंपा के साथ बहुत कम सैनिक रह गए। ऐसी परिस्थिति में मगरे के नरा चौहान अपने नेतृत्व में ३००० सैनिकों को लेकर राव जैता व राव कूंपा के सहयोग के लिए आगे आये।

युद्ध :
अद्भुत पराक्रम के साथ राव जैता, राव कूंपा, राव नरा चौहान, राव लखा चौहान, राव अखैराज देवडा़, राव पंचायण, राव खींवकरण, राव सूजा,मान चारण  सहित अग्रणी सैनिकों के नेतृत्व में लगभग ८००० सैनिकों ने शेरशाह की ८० हजार सैनिकों की भारी भरकम सेना का डटकर सामना किया और ऐसा भीषण संहार किया, जिससे शेरशाह की सेना में भगदड़ मच गई। वे शेरशाह की तरफ बढ़ने लगे जिस पर एक पठान ने शेरशाह को मैदान छोड़ जाने को कहा, किन्तु  तुरन्त ही खवास खां व जलाल खां ने असंख्य सैनिकों के साथ दायीं और बायीं ओर घेरा बना लिया। इस घेरे में जैता राठौड़, कूंपा राठौड़, नरा चौहान व अनेक योद्धा तलवारों से आखिरी सांस तक संघर्ष करते रहे और वीरगति को प्राप्त हुए। इस प्रकार ८ हजार सैनिकों ने ८० हजार सैनिकों को इतनी भीषण टक्कर दी कि शेरशाह अत्यंत कठिनाई से यह युद्ध जीत पाया। इस युद्ध मे़ं सामंतों की वीरता को देखकर सूरी को ये कहना पडा़ कि " एक मुट्ठी बाजरे के लिए वह दिल्ली की सल्तनत खो देता।" यह  युद्ध ऐसा था, जिसमें साम्राज्य विस्तार के लिए नहीं हिंदुत्व की रक्षार्थ हेतु लड़ा गया। इस एक दिन के युद्ध में बादशाह के चालीस हजार से अधिक सैनिक मारे गए। हिंदूत्व रक्षार्थ हेतु गिरी सुमेल रणस्थली पर अनेक पराक्रमी शूरवीर रणखेत रहे जिसमें —— १.कूंपा मेहराजोत अखैराजोत २.जेता पंचायणोत अखैराजोत ३.भदा पंचायणोत अखैराजोत ४.भोमराज पंचायणोत अखैराजोत ५.उदय जैतावत पंचायणोत ६.रायमल अखैराजोत ७. जोगा रावलोत अखैराजोत ८.पता कानावत अखैराजोत ९.वेैरसी राणावत अखैराजोत १०.हमीर सिंहावत अखैराजोत ११.सूरा अखैराजोत १२.रायमल अखैराजोत १३. राणा अखैराजोत १४.खींवकरण उदावत १५.जैतसी उदावत १६.पंचायण करमसोत १७.नीबो आणदोत १८.बीदा भारमलोत १९.सुरताण डूंगरोत २०.वीदा डूंगरोत २१.जयमल डूंगरोत २२.कला कान्हावत २३.भारमल बालावत २४.भवानीदास राठौड़ २५.हरपाल राठौड़ २६.रामसिंह ऊहड़ २७.सुरजन ऊहड़ २८.राव नरा चौहान(३०००सैनिकों का योगदान) २९.राव लखा चौहान ३०.(भोजराज अखैराज सोनगरा ३१.अखैराज सोनगरा सहित २२ सोनगरा काम आये) ३२.अखैराज देवडा़ ३३.भाटी पंचायण जोधावत ३४.भाटी सूरा पर्वतोत ३५.भाटी जेसा लवेरा ३६.भाटी महरा अचलावत ३७.भाटी माघा राघोत ३८.भाटी साकर सुरावत ३९.भाटी गांगा वरजांगोत ४०.इंदा किशनसिंह ४१.हेमा नरावत ४२.सोढा़ नाथा देदावत ४३.धनराज सांखला ४४.डूंगरसिंह सांखला ४५.चारण मान खेतावत ४६.लुबां ४७.पठान अलदाद खां । लगभग ८ हजार वीरगति को प्राप्त योद्धाओं (राठौड़, सोनगरा, भाटी,मगरे के चौहान, देवडा़, इंदा, सांखला, मांगलिया व सोढा़ राजपूत सहित कई क्षत्रियों ने भी अपना बलिदान दिया।

शुक्रवार, 14 जनवरी 2022

ब्रिटिश सरकार की ट्रेन पर कब्जा करने बाले महाराणा फतेहसिंह जी की अनसुना किस्सा



ब्रिटिश सरकार की ट्रेन पर कब्जा करने बाले महाराणा फतेहसिंह जी की अनसुना किस्सा

1857 की क्रांति का इतिहास या तो मिटाया गया या तो बदल दिया गया। वीर सावरकर की लिखी गई पुस्तके 1857 के वीरसवरी भी अंग्रेजों द्वारा जब्त कर ली गई प्रतिबन्धित कर दी गई थी। भगतसिंह आदि लोगो ने चोरिछुपे उन पुस्तको को छपबाया था। ऐसी ही एक इतिहास की घटना आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हु जो इतिहास कारकों द्वारा छुपाई गई। मेवाड़ के महाराजाओ के बारे में सारे संसार मे प्रसिद्ध है उनकी वीरता ओर बुद्धिमता। आज से करीब 150 वर्ष पहले बहा के साशक महाराणा फतेहसिंह जी हुए। उनके बारे में कहा जाता है कि बे बड़े न्याय प्रिय, बहादुर ओर बुद्धिमान थे। अन्याय कही भी हो बे सहन नही करते थे। उनके साशन काल मे उन्होंने उदयपुर के घंटाघर में एक जूता टांग रखा था अगर कोई अपराधी अपराध करता तो उसे बही जूता मारा जाता था। इस तरह का दंड बहुत हो जाया करता था उस समय की जनता के लिए, क्योंकि उस समय की जनता बड़ी भोली ओर स्वाभिमानी हुआ करती थी अगर किसी को इतना ही जूता पड़ जाता और उसका सम्मान छिन जाता तो बह जीवन में कभी कोई अपराध नही करता था। फिर भी अगर कोई संगीन अपराध किया करता तो उसे मृत्यु दंड दिया जाता था।

मई 1910 में अंग्रेजो ने उदयपुर से चित्तौड़गढ़ के बीच ट्रेन चलबाई जिसका नाम था “BB&CI” ईस रुट के बीच मे एक भूपालसागर नामक तालाब आता है जो कि काफी बड़ा तालाब है ये तालाब फतेहसिंह जी के साशन में ही आता था। एक बार तालाब का तट टूट गया और मिट्टी के कटाव के कारण ट्रेन की सभी लाइने भी टूट गई। अब अंग्रेजी सरकार ने दिल्ली से महाराज फतेहसिंह जी को पत्र भिजवाया की “आपका भूपालसागर टूट जाने के कारण हमारी ट्रेन लाइन टूट गई है जिस कारण हमें 16लाख रुपये का नुकसान हुआ है आप जल्द से जल्द ब्रिटिश सरकार को रुपये देने का बंदोबस्त करे”।
अपनी बुद्धि और वीरता का परिचय देते हुए महाराज ने अपने पेशकार को बुलाया और अंग्रेज सरकार का पत्र फाड़कर अपना पत्र लिखबाया की “आपकी ट्रेन तो बाद में आई है पहले हमारा भूपालसागर बना था। आपकी ट्रेन की गड़गड़ाहट और ट्रेन के भार की वजह से हमारा भूपालसागर टूट गया है जिसके टूटने की वजह से हमारे किसानों की फसले वर्बाद हो गई ओर इसका नुकसान हमने 32लाख रुपये आंका है अंग्रेजी सरकार जितनी जल्दी हो सके रुपये की भरपाई हमारे किसानों को करे। जब तक 32लाख रुपये नही मिलते तबतक आपकी ट्रेन मेरे कब्जे में रहेगी”।
जब ये पत्र ब्रिटिश सरकार को मिला तो सभी के सभी हैरान हो गए ब्रिटिश हुकूमत में हड़कंप मच गया की अब किया क्या जाए, कैसे इस पत्र का कटाक्ष किया जाए। अंग्रेजों ने महाराज के खिलाफ बहुत सडयंत्र रचे बहुत दुष्प्रचार किये पर वे सफल न हुए। आखिरकार थक हार कर ब्रिटिश सरकार को सभी किसानों को रुपये देने ही पड़े। तब कही जाकर मेवाड़ के साशक फतेहसिंह जी ने ब्रिटिश सरकार की ट्रेन उन्हें बापिस लौटाई।

गुरुवार, 27 अगस्त 2020

पाबूजी राठौड़

गौ रक्षक पाबूजी राठौड़



सम्पूर्ण राजस्थान में विवाह के वक़्त दूल्हे दुल्हन के मात्र 4 फेरे लेने की प्रथा सदियों से है .... जबकि बाकी देश मे ये रस्म 7 फेरों की होती है ....

अमरकोट (तात्कालीन गुजरात वर्तमान पाकिस्तान) रियासत के सोढा राजपूतों से एक दिन पाबूजी राठौड़ के साये का नारियल आता है .... (विवाह का रिश्ता) ....

तय निश्चित तिथि को पाबूजी अपने सगे सम्बन्धियों मित्रों परिवारजनों के साथ अपनी बारात धूमधाम से अमरकोट ले के जाते हैं .... किन्तु उनका नाराज़ बहनोई जिनराव विवाह में शामिल नहीं होता ....

जिनराव एक योजना बनाता है .... अपने भाइयों और कुटुंब के साथ मिल के अपने बड़े साले बुढोजी पे आक्रमण की .... बुढोजी छोटे भाई पाबूजी की बारात में ना जाकर अपने रावळे मे ही रुकते हैं ....

जिनराव अपने भाइयों और सेना के साथ पाबूजी के गांव की और प्रस्थान करता है एवं वहां पहुंचकर सीमा पे अपनी सेना का पड़ाव डालता है .... योजना बनती है कि जिनराव पहले अकेला जा के अपने बड़े साले बुढोजी को युद्ध के लिए ललकरेगा और घोड़ी कालवी देने की मांग करेगा ....

जिनराव अपने ससुराल पहुंचकर अपने बड़े साले बुढोजी से झगड़ा करता है और उनको युद्ध के लिए ललकारता है .... बुढोजी की पत्नी छत के मालिये (कमरे) से घर के आंगन में ये नज़ारा देख रही होती है .... क्षत्राणी छत से नीचे आती है और कटार निकाल के अपने ननदोई जिनराव को युद्ध के लिए ललकारती है .... बोलती है मेरे पति को एक शब्द कहा तो कटार सीने में उतार दूंगी ....

क्षत्राणी का रौद्र रूप देख के जिनराव वहां से उल्टे पांव भग खड़ा होता है ....

जिनराव अपने डेरे में आकर अपने भाइयों को पूरी बात बताता है .... जिनराव के भाई कहते हैं अब हम खाली हाथ जायल (नागौर) लौटे तो हमारी बेइज्जती होगी क्यों न हम कुछ ऐसा जतन कर के जायें की पाबूजी खुद अपनी घोड़ी कालवी को हमारे पास छोड़ के जाये ....

योजना बनती है .... रात को जिनराव अपनी सेना और भाइयों के साथ देवल बाईसा की गौशाला पे हमला करता है .... गौशाला में देवल बाईसा का पति और उनके 24 भाई होते हैं .... भीष्ण रण में जिनराव देवल बाईसा के पति और उनके 24 भाइयों को मार के सब गौ माता को लूट के अपने साथ ले जाता है ....

तड़के जल्दी देवल बाईसा दुहारी करने अपनी गौशाला आती है तो वहां का नज़ारा देख के विस्मित हो जाती है .... अपने पति की और कुटुंब की लाशें देख के देवल बाईसा रोते रोते बेहाल हो जाती है ....

देवल बाईसा पाबूजी के रावळे जा के रोते हुए मदद की गुहार लगाती है .... अंदर से पाबूजी के बड़े भाई राव बुढोजी आते हैं और देवल बाईसा को रोते-बिलखते देख के कहते हैं .... हे बाईसा क्या हुआ ?? .... इतनी भोर में आप इस हालत में मेरे द्वारे क्यों ?? ....

देवल बाईसा बुढोजी को पूरी बात बताते हुए कहती है .... भाईसा मेरा भाई पाबू कहाँ है ?? .... उसने मुझे मेरी रक्षा का वचन दिया था ....

बुढोजी कहते हैं .... बाईसा पाबू तो अपनी जान (बारात) ले कर अमरकोट परणीजने (ब्याहने) गया है अब बारात तो वापस एक दो महीने बाद आयेगी ....

शक्ति अवतार देवल बाईसा सुगन चिड़ी (सोन चिड़ियां) का रूप धर के उड़ते हुए अमरकोट जाती है ....

अमरकोट के गढ़ में उस वक़्त पाबूजी चँवरी (लग्न मंडप) में फेरे ले रहे होते हैं .... 

देवल बाईसा सुगन चिड़ी का रूप धरे अमरकोट गढ़ की मुंडेर पे बैठ के ज़ोर ज़ोर से रोने लगती है .... चिड़ी रूप धरे देवल बाईसा का क्रुन्दन जब घोड़ी कालवी के कानों में पड़ता है तो कालवी ज़ोर ज़ोर से चिंघाड़ते हुए कूदने लगती है ....

पाबूजी के 2 अभिन्न मित्र चांदोजी राठौड़ और डेमोजी राठौड़ भी उस वक़्त मंडप में मौजूद रहते हैं .... पाबूजी का साला चांदोजी से जा के कहता है आपकी घोड़ी कालवी को क्या हुआ ज़ोर ज़ोर से उछल क्यों रही है ?? ....

चांदोजी और अपने साले का संवाद फेरे लेते पाबूजी के कानों में पड़ता है और देवल बाईसा की कूक भी सुनाई देती है .... पाबूजी उस वक़्त 3 फेरे ले चुके होते हैं और चौथे फेरे के लिए पांव आगे बढ़ाते हैं ....

लेकिन अपनी बहन देवल बाईसा पे संकट देख के पाबूजी चौथा फेरा पूरा नहीं लेते .... अपनी तलवार से वो गठजोड़ा (दुल्हन की चुनड़ी और दूल्हे के साफे का बंधन) तोड़ के अपनी घोड़ी कालवी की पीठ पे सवार हो जाते हैं .... (सम्पूर्ण राजस्थान में तब से ही विवाह के वक़्त सिर्फ 4 फेरे लेने की प्रथा है) ....

पाबूजी के साले साली ससुराल पक्ष के लोग उनके पांव पकड़ लेते हैं और कहते हैं .... पावणा (दामाद/जंवाई/कुंवर साब) आप शादी बीच मे छोड़ के कहाँ और क्यों जा रहे हो ?? .... क्या हमारी मनुहार खातिरदारी दान दहेज में कोई कमी रह गयी ?? .... या हमारी बाई (बहन/बेटी/कन्या) में कोई कमी है ?? .... हम तो आपको बिना फेरे पूरे किए जाने नहीं देंगे ....

पाबूजी कहते हैं मेरी धर्म की बहन देवल बाईसा संकट में है मुझे जाना ही होगा मैंने बाईसा को रक्षा का वचन दे रखा है .... मैं ज़िंदा रहा तो शादी फिर हो जाएगी वापस आ के फेरे ले लूंगा आपकी बाई से ....

पाबूजी जी फेरे शादी बीच मे छोड़ के घर लौटते हैं और अपने बहनोई जिनराव को सबक सिखाने की ठानते हैं .... तभी उनकी मां कमला दे उनसे कहती है देख पाबू वो तेरी बहन का सुहाग है तू कुछ ऐसा काम मत करना जिससे तेरी बहन के सुहाग पे आंच आये ....

पाबूजी मां को कहते हैं ठीक है लेकिन मैं उसे सबक जरूर सिखाऊंगा .... मां को वचन दे कर पाबूजी रणभूमि में निकलते हैं ....

एक तरफ जायल (नागौर) के जिनराव की सेना और कुटुंब दूजी तरफ पाबूजी और साथ मे उनके दो अभिन्न मित्र चांदोजी और डेमोजी .... युद्ध शुरू होता है और देखते देखते पाबूजी रणभूमि में त्राहिमाम मचा देते हैं .... चारों तरफ खून की नदी बहने लगती है लाशों के अंबार लगता है .... अंत मे नंबर आता है जिनराव का ....

जिनराव सामने मृत्यु देख के अपने साले पाबूजी जी जान की भीख मांगता है ....

पाबूजी बहनोई जिनराव को माफ कर के जैसे ही पीछे मुड़ते हैं घायल जिनराव एक तलवार लपक के तलवार का भरपूर वार पाबूजी की गर्दन पर करता है .... पाबूजी वहीं शहीद हो जाते हैं धड़ और गर्दन अलग अलग हो जाती है ....

पाबूजी के रावळे में जब खबर पहुंचती है कि अपनी बहन देवल को दिए वचन की खातिर गौ रक्षा करते हुए पाबूजी शहीद हो गए तो उनके बड़े भाई राव बुढोजी रणभूमि की और बढ़ते हैं .... राव बुढोजी भी युद्ध में बहनोई जिनराव के हाथों शहीद हो जाते हैं ....

बुढोजी की पत्नी उस वक़्त 9 माह की गर्भवती रहती है .... अपने पति की मौत की खबर सुनकर क्षत्राणी अपनी कटार निकाल के अपना पेट चिर के अपने गर्भस्थ शिशु को गर्भ से बाहर निकाल के अपनी सास कमला दे को सौंपती है .... इसके बाद क्षत्राणी अपने पति के साथ अग्नि में चूड़े चुनड़े सहित अमर (सती) हो जाती है ....

राजकोट रियासत में जब खबर पहुंचती है कि उनके कुंवर साब (दामाद) पाबूजी गौ रक्षा और अपने वचन की खातिर युद्ध में शहीद हो गए हैं तो पाबूजी की 4 फेरों की ब्याहता पत्नी सुप्रिया कुंवर मारवाड़ आती है और अपने सुहाग पाबूजी जी के साथ चीता में अमर हो जाती है ....

पाबूजी जी के भाभीसा यानी बड़े भाई बुढोजी की पत्नी ने सती होने से पूर्व अपना पेट चिर के जिस बेटे को जन्म दिया था उस बेटे का नाम रखा गया .... झरड़ो जी ....

झरड़ो जी ने बड़े हो कर जिनराव से अपने पिता राव बुढोजी और अपने काकोसा पाबूजी जी की मौत का बदला लिया ....

उसके बाद कालांतर में आगे चलकर झरड़ो जी नाथ सम्प्रदाय में दीक्षित हो गये और उनका नाम बदलकर रुपनाथ जी हो गया .... रुपनाथ जी के रूप में वो आज भी राजस्थान के ख्याति प्राप्त सिद्ध पुरुष और लोकदेवता के रूप में पूजे जाते हैं .... रुपनाथ जी के राजस्थान में अनेक मंदिर देवरे बने हुए हैं ....

पाबूजी राठौड़ 800 वर्षों से राठौड़ कुल के कुल देवता हैं .... और राजस्थान के प्रमुख लोक देवता है .... पाबूजी के मंदिर देवरे राजस्थान के प्रत्येक शहर कस्बे गांव ढाणी ढाणी में है .... पाबूजी राजस्थान के घर घर में पूजे जाते हैं ....

ऊंटों के बीमार होने पर या ऊंट कल्याण के लिए पाबूजी राठौड़ की मन्नत मांगी जाती है .... प्लेग आदि रोगों के लिए भी पाबूजी की मन्नत मांगी जाती है या उनके मन्दिर में धोक दी जाती है .... लोगों को फायदा होता है ....

पाबूजी ने गौ रक्षा और अपने वचन की खातिर चौथे फेरे के बीच मे ही चँवरी (लग्न मंडप) छोड़ी थी .... तब से 800 वर्षों से सम्पूर्ण राजस्थान में शादी में दूल्हे दुल्हन के 4 फेरों की ही प्रथा है .... 3 फेरों में दुल्हन आगे 1 फेरे में दूल्हा आगे ....

पाबूजी को लक्ष्मण अवतारी माना जाता है ....

आदिवासी जनजाति भोपों द्वारा पाबूजी की फड़ (कथा) बड़ी शानदार बाँची जाती है ....

कोलूमढ रे धणियों ने घणी खम्मा

पाबूजी महाराज की जय !!!! ....
साभारः
अशोक पालीवाल

शनिवार, 18 जुलाई 2020

"परमवीर चक्र" मेजर पीरू सिंह शेखावत

"परमवीर चक्र" मेजर पीरू सिंह शेखावत -   
बलिदान दिवस 18 जुलाई 1948

मेजर पीरू सिंह शेखावत  का जन्म 20 मई 1918 को गाँव रामपुरा बेरी, (झुँझुनू) राजस्थान में हुआ . वह 20 मई 1936 को 6 राजपुताना रायफल्स में भर्ती हुए.

1948 की गर्मियों में जम्मू & कश्मीर ऑपरेशन के दौरान पाकिस्तानी सेना व कबाईलियों ने संयुक्त रूप से टीथवाल सेक्टर में भीषण आक्रमण किया.  इस हमले में दुशमन ने भारतीय सेना को किशनगंगा नदी पर बने अग्रिम मोर्चे छोड़ने पर मजबूर कर दिया.

भारतीय हमले 11 जुलाई 1948 को शुरू हुए. यह ऑपरेशन 15 जुलाई तक अच्छी तरह जारी रहे. इस इलाके में दुश्मन एक ऊँची पहड़ी पर पहाड़ी पर स्थित था , अत: आगे बढ़ने के लिए उस जगह पर कब्जा करना बहुत ही आवश्यक था. उस के नजदीक ही दुश्मन ने एक और पहाड़ी पर बहुत ही मजबूत मोर्चाबंदी कर रखी थी.  6 राजपुताना रायफल्स को इन दोनों पहाड़ी मोर्चों पर फिर से कब्ज़ा  करने का  विशेष काम दिया गया.

इस हमले के दौरान पीरू सिंह इस कंपनी के अगुवाई करने वालों में से थे, जिस के आधे से ज्यादा सैनिक दुश्मन की भीषण गोलाबारी में शहीद  हों चुके थे . पीरू सिंह दुश्मन की उस मीडियम मशीन गन पोस्ट की तरफ दौड़ पड़े जो उन के साथियों पर मौत बरसा रही थी. दुश्मन के बमों के छर्रों से पीरू सिंह के कपड़े तार - तार हो गए व शरीर बहुत सी जगह से बुरी तरह घायल हो गया, पर यह घाव वीर पीरू सिंह को आगे बढ़ने से रोक नहीं सके.  वह राजपुताना रायफल्स का जोशीला युद्धघोष " राजा रामचंद्र की जय" करते लगातार आगे ही बढ़ते रहे. आगे बढ़ते हुए उन्होनें मीडियम मशीन गन से फायर कर रहे दुश्मन सैनिक को अपनी स्टेनगन से मार डाला व कहर बरपा रही मशीन गन बंकर के सभी दुश्मनों को मारकर उस पोस्ट पर कब्जा कर लिया.

तब तक उन के सारे साथी सैनिक या तो घायल होकर या प्राणों का बलिदान कर रास्ते में पीछे ही पड़े रह गए.  पहाड़ी से दुश्मन को हटाने की जिम्मेदारी मात्र अकेले पीरू सिंह पर ही रह गई . शरीर से बहुत अधिक खून बहते हुए भी वह दुश्मन की दूसरी मीडियम मशीन गन पोस्ट पर हमला करने को आगे बढ़ते, तभी एक बम ने उन के चेहरे को घायल कर दिया. उन के चेहरे व आँखो से खून टपकने लगा तथा वह लगभग अँधे हो गए. तब तक उन की स्टेन गन की सारी गोलियां भी खत्म हो चुकी थी . फिर भी दुश्मन के जिस बँकर पर उन्होने कब्जा किया था, उस बँकर से वह बहादुरी से रेंगते हुए बाहर निकले, व दूसरे बँकर पर बम फेंके.

बम फेंकने के बाद पीरू सिंह दुश्मन केे उस बँकर में कूद गए व दो दुश्मन सैनिकों को मात्र स्टेन गन के आगे लगे चाकू से मार गिराया. जैसे ही पीरू सिंह तीसरे बँकर पर हमला करने के लिए बाहर निकले उन के सिर में एक गोली आकर लगी फिर भी वो तीसरे बँकर की तरफ बढ़े व उस के मुहाने पर गिरते देखे गए.

तभी उस बँकर में एक भयंकर धमाका हुआ, जिस से साबित हो गया की पीरू सिंह के फेंके बम ने अपना काम कर दिया है. परतुं तब तक पीरू सिंह के घावों से बहुत सा खून बह जाने के कारण वो शहीद हो गए. उन्हे कवर फायर दे रही "C" कंपनी के कंपनी कमांडर ने यह सारा दृश्य अपनी आँखों से देखा. अपनी विलक्षण वीरता के बदले उन्होने अपने जीवन का मोल चुकाया, पर अपने अन्य साथियों के समक्ष अपनी एकाकी वीरता, दृढ़ता व मजबूती का अप्रतिम उदाहरण प्रस्तुत किया. इस कारनामे को विश्व के अब तक के सबसे साहसिक कारनामो में एक माना जाता है.

अपनी प्रचंड वीरता, कर्त्तव्य के प्रति निष्ठा और प्रेरणादायी कार्य के लिए कंपनी हवलदार मेजर पीरू सिंह भारत के युद्धकाल के सर्वोच्च वीरता पुरस्कार "परमवीर चक्र" से मरणोपरांत सम्मानित किए गए.

बुधवार, 1 जुलाई 2020

Thakur Balwant Singh Bakhasar

The story of a Rajasthani Dacoit ., who helped guide the Indian Para Commandos in 1971 war to their targets in Pakistan



He is Thakur Balwant Singh Bakhasar from Barmer, Rajasthan.

 He played an active role in helping the Indian Army reach Sindh and capture Pakistani areas during the Indo-Pak War of 1971.

 He was active as a dacoit in and around Barmer, parts of Gujarat and Sindh in Pakistan and was dreaded in these regions within a circumference of 100 km in the pre 1971s.

 He was familiar of each and every corner and pathway of these regions. 

His knowledge of untrodden routes proved a boon for the Indian Army in the war. Ultimately India won this war against Pakistan.

Indian Para Commandos in this region during the 1971 war was led by Lt.Col. Sawai Bhawani Singh. 

The Col was aware of Balwant Singh’s knowledge of routes in that region. He sought the dacoit’s guidance of routes to which the latter readily agreed.  

The Indian Army first attacked and captured Chachro town in Pakistan on December 7, 1971.

 Thereafter, the Indian Army commandos attacked Virawah and captured it. In total, Dacoit Balwant Singh Bakhasar not only guided the Indian Army but also (along with his associates) participated as soldiers to capture many villages of Pakistan.

Interestingly, Balwant Singh Bakhasar started his pastime as a Gaurakshak.

 Pakistanis often came to India along the borders and stole cattle. Balwant Singh Bakhasar saved the cows, killing the Pakistani cattle thieves. 

He saved many cows from being stolen and encountered many cattle thieves. 

This stopped the the Pakistanies from further entering the Indian borders and stopped their activities. They dreaded Balwant Singh.

Dacoit Th. Balwant Singh Bakhasar became a hero and his fame as a patriot spread far and wide.

 The Rajasthan government pardoned him. Lt.Col. 

Sawai Bhawani Singh was awarded with Mahaveer Chakra.