रविवार, 24 मई 2015

रानी कर्मवती और राखी

रानी कर्मवती और राखी

इतिहास में चितौड़ की रानी कर्मवती जिसे कर्णावती भी कहा जाता है द्वारा हुमायूं को राखी भेजने व उस राखी का मान रखने हेतु हुमायूं द्वारा रानी की सहायता की बड़ी बड़ी लिखी हुईं है. इस प्रकरण के बहाने हुमायूं को रिश्ते निभाने वाला इंसान साबित करने की झूंठी चेष्टा की गई. चितौड़ पर गुजरात के बादशाह बहादुरशाह द्वारा आक्रमण के वक्त चितौड़ का शासक महाराणा विक्रमादित्य अयोग्य शासक था. चितौड़ के ज्यादातर सामंत उससे नाराज थे और उनमें से ज्यादातर बहादुरशाह के पास भी चले गए थे. ऐसी स्थिति में चितौड़ पर आई मुसीबत से निपटने के लिए रानी कर्मवती ने सेठ पद्मशाह के हाथों हुमायूं को भाई मानते हुए राखी भेजकर सहायता का अनुरोध किया. हुमायूं ने हालाँकि रानी की राखी का मान रखा और बदले में उसे बहिन मानते हुए ढेरों उपहार भी भेजें. क्योंकि हुमायूं भारतीय संस्कृति में भाई-बहन के रिश्ते का महत्त्व तब से जानता था, जब वह बुरे वक्त में अमरकोट के राजपूत शासक के यहाँ शरणागत था. अमरकोट पर उस समय राजपूत शासक राणा वीरशाल का शासन था| राणा वीरशाल की पटरानी हुमायूं के प्रति अपने सहोदर भाई का भाव रखती थी व भाई तुल्य ही आदर करती थी| हुमायूं के पुत्र अकबर का जन्म भी अमरकोट में शरणागत रहते हुए हुआ था.
भारतीय संस्कृति के इसी महत्त्व को समझते हुए हुमायूं रानी की सहायतार्थ सेना लेकर रवाना हुआ और ग्वालियर तक पहुंचा भी. लेकिन ग्वालियर में हुमायूँ को बहादुरशाह का पत्र मिला जिसमें उसने लिखा था कि वह तो काफिरों के खिलाफ जेहाद कर रहा है. यह पढ़ते ही हुमायूं भारतीय संस्कृति के उस महत्त्व को जिसकी वजह से उसे कभी शरण मिली, उसकी जान बची थी को भूल गया और ग्वालियर से आगे नहीं बढ़ा. काफिरों के खिलाफ जेहाद के सामने हुमायूं भाई-बहन का रिश्ता भूल गया, उसे इस्लाम के प्रसार के आगे ये पवित्र रिश्ता बौना लगने लगा और वह एक माह ग्वालियर में रुकने के बाद 4 मार्च 1533 को वापस आगरा लौट गया.

यही नहीं, जब हुमायूं का एक सरदार मुहम्मद जमा बागी होकर बयाना से भागकर बहादुरशाह की शरण में जा पहुंचा. हुमायूं के उस बागी को वापस मांगने पर बहादुरशाह ने मना कर दिया. तब हुमायूं ने गुजरात पर आक्रमण कर दिया और बहादुरशाह के सेनापति तातारखां को बुरी तरह हरा दिया. उस वक्त बहादुरशाह ने चितौड़ पर दूसरी बार घेरा डाला था. मुग़ल सेना से अपनी सेना के हार का समाचार मिलते ही, बहादुरशाह ने चितौड़ से घेरा उठाकर अपने राज्य रक्षार्थ प्रस्थान करने की योजना बनाई. 
लेकिन उसके एक सरदार ने साफ़ किया कि जब वह चितौड़ पर घेरा डाले है, हुमायूं हमारे खिलाफ आगे नहीं बढेगा. क्योंकि चितौड़ पर बहादुरशाह का घेरा हुमायूं की नजर में काफिरों के खिलाफ जेहाद था. हुआ भी यही हुमायूं सारंगपुर में रुक कर चितौड़ युद्ध के परिणाम की प्रतीक्षा करने लगा. लेकिन कर्णावती की राखी की लाज बचाने जेहाद के बीच बहादुरशाह से दुश्मनी होने के बावजूद नहीं आया. आखिर चितौड़ विजय के बाद बहादुरशाह हुमायूं से युद्ध के लिए गया और मन्दसौर के पास मुग़ल सेना से हुए युद्ध में हार गया. उसकी हार की खबर सुनते ही चितौड़ के 7000 राजपूत सैनिकों ने चितौड़ पर हमला कर उसके सैनिकों को भगा दिया और विक्रमादित्य को बूंदी से लाकर पुन: गद्दी पर आरुढ़ कर दिया.

राजपूत वीरों द्वारा पुन: चितौड़ लेने का श्रेय भी कुछ दुष्प्रचारियों ने हुमायूं को दिया कि हुमायूं ने चितौड़ को वापस दिलवाया. जबकि हकीकत में हुमायूँ ने बहादुरशाह से चितौड़ के लिए कभी कोई युद्ध नहीं किया. बल्कि बहादुरशाह से बैर होने के बावजूद वह चितौड़ मामले में बहादुरशाह के खिलाफ नहीं उतरा. 

शनिवार, 9 मई 2015

राणा प्रताप का एक किस्सा

जब अकबर ने चितौड़ पर कब्जा कर लिया था और राणा प्रताप को किला छोड जंगल में रहना पडा था तब राणा ने अकबर को सबक सिखाने के लिए एक योजना बनाई तब एक रात राणा और एक भील और कुछ साथियों के साथ मिलकर किले पर गए लेकिन अकबर ने अपनी सुरक्षा के लिए किले के चारों तरफ खाई खुदवाई हुई थी और खाई में दो भुखे शेरों को छोड दिया था उस समय भील ने राणा जी से निवेदन किया कि वे उस के शरीर को चार हिस्सों में काटे दो हिस्सों जाते समय शेरों को दे व दो हिस्सों आते समय तब राणा को भील पर बहुतगर्व महसूस हुआ और राणा ने भील के चार हिस्सों किए शेरों को दिए और किले में दाखिल हुए उस समय अकबर सो रहे थे राणा ने सोते अकबर पर वार ना कर सबक सिखाने के लिए अकबर कि दाहिने साईड की मुछं और कलमे कट ली क्यो की अकबर सुबह उठते ही अपनी दाहिने मुछं व कलमो पर हाथ लगाता था ... जब अकबर सुबह उठा तो उसने अपनी दाहिने मुछं कलमो हाथ लगाया वो कटी हुई थी और सामने दिवार पर लिखा था कि " सोते पर राणा वार नहीं करता में यहाँ तक आ सकता हूँ तो सोच लो क्या कर  सकता था " फिर क्या अकबर चितौड़ दिल्ली रवाना हो गए .......!!

मंगलवार, 21 अप्रैल 2015

भगवान परशुराम

भगवान परशुराम को भगवन विष्णु का छठवां अवतार माना जाता हैं।  भगवान परशुराम के बारे में यह प्रसिद्ध है कि उन्होंने तत्कालीन अत्याचारी और निरंकुश क्षत्रियों का 21 बार संहार किया। लेकिन क्या आप जानते हैं भगवान परशुराम ने आखिर ऐसा क्यों किया? इसी का जवाब देती है एक रोचक पुराण कथा -

महिष्मती नगर के राजा सहस्त्रार्जुन क्षत्रिय समाज के हैहय वंश के राजा कार्तवीर्य और रानी कौशिक के पुत्र थे | सहस्त्रार्जुन का वास्तवीक नाम अर्जुन था।  उन्होने दत्तत्राई को प्रसन्न करने के लिए घोर तपस्या की। दत्तत्राई उसकी तपस्या से प्रसन्न हुए और उसे वरदान मांगने को कहा तो उसने दत्तत्राई से 10000 हाथों का आशीर्वाद प्राप्त किया।  इसके बाद उसका नाम अर्जुन से सहस्त्रार्जुन पड़ा | इसे सहस्त्राबाहू और राजा कार्तवीर्य पुत्र होने के कारण कार्तेयवीर भी कहा जाता है |

कहा जाता है महिष्मती सम्राट सहस्त्रार्जुन अपने घमंड में चूर होकर धर्म की सभी सीमाओं को लांघ चूका था | उसके अत्याचार व अनाचार से जनता त्रस्त हो चुकी थी | वेद - पुराण और धार्मिक ग्रंथों को मिथ्या बताकर ब्राह्मण का अपमान करना, ऋषियों के आश्रम को नष्ट करना, उनका अकारण वध करना, निरीह प्रजा पर निरंतर अत्याचार करना, यहाँ तक की उसने अपने मनोरंजन के लिए मद में चूर होकर अबला स्त्रियों के सतीत्व को भी नष्ट करना शुरू कर दिया था |

एक बार सहस्त्रार्जुन अपनी पूरी सेना के साथ झाड - जंगलों से पार करता हुआ जमदग्नि ऋषि के आश्रम में विश्राम करने के लिए पहुंचा | महर्षि जमदग्रि ने सहस्त्रार्जुन को आश्रम का मेहमान समझकर स्वागत सत्कार में कोई कसर नहीं छोड़ी | कहते हैं ऋषि जमदग्रि के पास देवराज इन्द्र से प्राप्त दिव्य गुणों वाली कामधेनु नामक अदभुत गाय थी | महर्षि ने उस गाय के मदद से कुछ ही पलों में देखते ही देखते पूरी सेना के भोजन का प्रबंध कर दिया | कामधेनु के ऐसे विलक्षण गुणों को देखकर सहस्त्रार्जुन को ऋषि के आगे अपना राजसी सुख कम लगने लगा। उसके मन में ऐसी अद्भुत गाय को पाने की लालसा जागी। उसने ऋषि जमदग्नि से कामधेनु को मांगा। किंतु ऋषि जमदग्नि ने कामधेनु को आश्रम के प्रबंधन और जीवन के भरण-पोषण का एकमात्र जरिया बताकर कामधेनु को देने से इंकार कर दिया। इस पर सहस्त्रार्जुन ने क्रोधित होकर ऋषि जमदग्नि के आश्रम को उजाड़ दिया और कामधेनु को ले जाने लगा। तभी कामधेनु सहस्त्रार्जुन के हाथों से छूट कर स्वर्ग की ओर चली गई।

जब परशुराम अपने आश्रम पहुंचे तब उनकी माता रेणुका ने उन्हें सारी बातें विस्तारपूर्वक बताई। परशुराम माता-पिता के अपमान और आश्रम को तहस नहस देखकर आवेशित हो गए। पराक्रमी परशुराम ने उसी वक्त दुराचारी सहस्त्रार्जुन और उसकी सेना का नाश करने का संकल्प लिया। परशुराम अपने परशु अस्त्र को साथ लेकर सहस्त्रार्जुन के नगर महिष्मतिपुरी पहुंचे। जहां सहस्त्रार्जुन और परशुराम का युद्ध हुआ। किंतु परशुराम के प्रचण्ड बल के आगे सहस्त्रार्जुन बौना साबित हुआ। भगवान परशुराम ने दुष्ट सहस्त्रार्जुन की हजारों भुजाएं और धड़ परशु से काटकर कर उसका वध कर दिया।

ऋषि जमदग्नि और परशुराम

सहस्त्रार्जुन के वध के बाद पिता के आदेश से इस वध का प्रायश्चित करने के लिए परशुराम तीर्थ यात्रा पर चले गए। तब मौका पाकर सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने अपने सहयोगी क्षत्रियों की मदद से तपस्यारत महर्षि जमदग्रि का उनके ही आश्रम में सिर काटकर उनका वध कर दिया | सहस्त्रार्जुन पुत्रों ने आश्रम के सभी ऋषियों का वध करते हुए, आश्रम को जला डाला | माता रेणुका ने सहायतावश पुत्र परशुराम को विलाप स्वर में पुकारा | जब परशुराम माता की पुकार सुनकर आश्रम पहुंचे तो माता को विलाप करते देखा और माता के समीप ही पिता का कटा सिर और उनके शरीर पर 21 घाव देखे।

यह देखकर परशुराम बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने शपथ ली कि वह हैहय वंश का ही सर्वनाश नहीं कर देंगे बल्कि उसके सहयोगी समस्त क्षत्रिय वंशों का 21 बार संहार कर भूमि को क्षत्रिय विहिन कर देंगे। पुराणों में उल्लेख है कि भगवान परशुराम ने अपने इस संकल्प को पूरा भी किया।

पुराणों में उल्लेख है कि भगवान परशुराम ने  21  बार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन करके उनके रक्त से समन्तपंचक क्षेत्र के पाँच सरोवर को भर कर अपने संकल्प को पूरा किया | कहा जाता है की महर्षि ऋचीक ने स्वयं प्रकट होकर भगवान परशुराम को ऐसा घोर कृत्य करने से रोक दिया था तब जाकर किसी तरह क्षत्रियों का विनाश भूलोक पर रुका | तत्पश्चात भगवान परशुराम ने अपने पितरों के श्राद्ध क्रिया की एवं उनके आज्ञानुसार अश्वमेध और विश्वजीत यज्ञ किया |

शनिवार, 18 अप्रैल 2015

श्री ओम बन्ना


ओम बन्ना एक पवित्र दर्शनीय स्थल है जो पाली जिले में स्थित है ये पाली शहर से मात्र बीस किमी दूर है यहाँ लोग सफल यात्रा और मनोकामना मांगने दूर दूर से आते है यहाँ ये एक बुलेट के रूप में पूजे जाते है ये मंदिर पूरी दुनिया का अनोखा और एक मात्र बुलेट मंदिर है

परिचय--

ओम बन्ना का पूरा नाम ओम सिंह राठौड है ये चोटिला ठिकाने के ठाकुर जोग सिंह जी के पुत्र थे राजपूतो में युवाओ को बन्ना कहा जाता है इसी वजह से ओम सिंह राठौड सभी में ओम बन्ना के रूप में प्रसिद्ध हुए

क्या है मान्यता

सन 1988 में ओम बन्ना अपनी बुलेट पर अपने ससुराल बगड़ी,साण्डेराव से अपने गाँव चोटिला आ रहे थे तभी उनका एक्सीडेंट एक पेड़ से टकराने से हो गया ओम सिंह राठौड़ की उसी वक़्त मृत्यु हो गयी एक्सीडेंट के बाद उनकी बुलेट को रोहिट थाने ले जाया गया पर अगले दिन पुलिस कर्मियों को वो बुलेट थाने में नही मिली वो बुलेट बिना सवारी चल कर उसी स्थान पर चली गयी अगले दिन फिर उनकी बुलेट को रोहिट थाने ले जाया गया पर फिर वही बात हुयी ऐसा तीन बार हुआ चौथी बार पुलिस ने बुलेट को थाने में चैन से बाँध कर रखा पर बुलेट सबके सामने चालू होकर पुनः अपने मालिक सवार के दुर्घटना स्थल पर पहुंच गयी अतः ग्रामीणो और पुलिस वालो ने चमत्कार मान कर उस बुलेट को वही पर रख दिया उस दिन से आज तक वहा दूसरी कोई बड़ी दुर्घटना वह नही हुयी जबकि पहले ये एरिया राजस्थान के बड़े दुर्घटना क्षेत्रो में से एक था  ओम बन्ना की पवित्र आत्मा आज भी वह लोगो को अपनी मौजूदगी का एहसास कराती है आज भी रोहट थाने के नए ठाणेदार जोइनिंग से पहले वह धोक देते है

पूजा स्थल--

पाली जोधपुर राष्ट्रीय राज मार्ग पर ये स्थान है यहा आज भी वही बुलेट मौजूद है और Vओम बन्ना का चबूतरा भी है जहा उनका एक्सीडेंट हुआ था यहाँ दिन रात जोत जलती रहती है और ग्रामीण यहाँ नारियल ,फूल,दारू आधी चढ़ावा चढ़ते है दूर दूर से श्रद्धालु यहाँ आते है         इसे अगले ग्रुप मे भेजे और चमत्कार देखे।            

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2015

वीर दुर्गादास राठोड़

                                    
माई एह्ड़ा पूत जण , जेहडा दुर्गादास !
मार मंडासो थामियो , बिण खम्बे आकास !!

दुर्गादास राठोड़ अपने ज़माने के असाधारण योद्धा , नितिज्ञ व प्रतिभावान व्यक्ति थे।इनका

जन्म 13 अगस्त ,1638 ई . आसकरण जी की तीसरी पत्नी के गर्भ से सालवा में हुआ। इनका माँ

जयमल केलणोत भाटी की पोती थी ,जिसकी वीरता के किस्से प्रसिद्ध थे और इसी से प्रभावित हो कर

आसकरण जी ने इस भटियानी से विवाह किया था।किन्तु भटियानी जी के  उग्र स्वभाव की वजह से ज्यादा

दिन निभ नही पाई। सो पारिवारिक तनाव को कम करने के लिये आसकरण जी ने  माँ बेटो के रहने की

व्यवस्था सालवा से 2कोस की दूरी पर लूँणवां गाव में कर  दी। यही दुर्गादास जी का बचपन बीता और इसी

गाँव में इन्हें शिक्षा भी मिली।आजीविका के लिए जो  थोड़ी बहुत  फसल होती थी उसी पर निर्भर थे।

आयु में बहुत छोटे होते हुए भी दुर्गादास जी अपनी माँ की तरह बहुत साहसी व इरादों के पक्के थे।

आसकरणजी ने अपने दो बड़े पुत्रों के लिए जोधपुर राज्य  में नोकरी की व्यवस्था करदी , लेकिन दुर्गादास जी

बिलकुल उपेक्षित ही रहे।किशोरावस्था को पार कर जाने के बाद भी वह अपने उसी गाँव में अज्ञात जीवन

बिता रहे  थे।

       परन्तु संयोगवश सन 1655 ई . के लगभग एक घटना ने अचानक दुर्गादास राठोड के जीवन और भाग्य

को बिलकुल ही बदल दिया। अपने गाँव में ही इन्होने जोधपुर राज के रबारी की हत्या ऊँटो  को चराने के मामले

को ले कर कर दी।जब महाराजा जसवन्त सिंह जी को मालूम पड़ा की यह हत्या आसकरण जी के पुत्र ने की है

तो महाराजा ने उन से स्पष्टीकरण मांगा। आसकरण जी ने उस गाँव में अपने पुत्र के होने से इनकार कर

दिया, परिणामस्वरूप दुर्गादास जी को महाराज के सामने  हाजिर होने का आदेश हुआ।  महाराजा के सामने

दुर्गादासजी ने अपना अपराध तो स्विकार कर लिया पर साथ ही इस को उचित ठहराते हुए  कहा की रबारी

की लापरवाही की वजह से ऊंट किसानो की खड़ी फसल को रूंद रहे थे ,और जब ऊँटो को बाहर निकाल ने के

लिए कहा गया तो उस ने बदतमीजी की और यहाँ तक की उस ने जोधपुर दुर्ग को भी बिना छत का सफेद खंडर

कहा जो असहनीय था। महाराजा जसवंत सिंह जी उन की निर्भीकता  व जोधपुर के प्रति निष्ठां से काफी

प्रभावित हुए व दुर्गादास जी को अपने पास रखलिया। इन्होने महाराजा का इतना विस्वास जीत लीया की

प्रत्यक अभियान में ये उन के रहने लगे।

इस घटना के करीब 2 वर्ष उपरांत बादसाह शांहजहां बीमार पड गया ,पुरे सम्राज्य में भांति भांति की अफवाहें

फैल ने लगी। दारा द्वारा सूचनाओं पर पाबंदी लगा देने से पूरे साम्राज्य में भ्रान्ति व अफवा फलने लगी। मुग़ल

साम्राज्य के सिंहासन के उतराधिकारी पद के लिए बड़े पैमाने पर युद्ध की तैयारियां होने लगी। बंगाल में शुजा

ने और गुजरात में मुराद ने स्वयम को सम्राट घोषित कर दिया।उधर दक्षिण में ओरंगजेब सारी स्थिति पर

नजर  रखे हुए प्रतीक्षा करता रहा।

इधर शाहजहाँ पूरी तरह स्वस्थ हो  चूका था। उसने अपने हाथ से तीनो शाजदाओं को पत्र लिखा,पर तीनो का

संदेह दूर नही हुआ।ओरंगजेब  दक्षिण से रवाना हो कर धरमत पंहुच गया ,इस की मुराद से सांठ गांठ हो गयी

दोनों की संयुक्त सेना 15 अप्रेल'1658 ई .को  उज्जैन से करीब 10 कोस दूर  धरमत पंहुच गयी जहाँ शाही सेना

  जसवंत सिंहजी के नेतृत्व में आगरा का रास्ता रोके हुए थी।   इस सेना में आसकरण जी व दुर्गादास दोनों थे।

16 अप्रेल'1658 ई . की प्रातः ही युद्ध शुरू हो गया ,ओरंगजेब के तोपखाने की भयंकर गोलाबारी से अग्रिम

पंक्ति में  जहाँ ज्यादा तर राजपूत थे भयंकर रक्तपात हुआ। यधपि इस शुरू की लड़ाई में शाही सेना की

विजय हुई किन्तु इस में राजपूत सरदारों में से अधिकांश अपनी शूरवीरता और पराक्रम के जोहर  दिखाते हुए

मारे  गये। कासिमखां के अधीन मुग़ल सेना ने राजपूतो की कोई सहायता नही की।आगे चलकर जब जसवंत

सिंह की सेना के कुछ  सेनानायक दूसरी तरफ मिलने लगे तो कुछ राजपूत सेनानायक भी मैदान छोड़ कर

चले गये। मराठा सेनानायक भी भाग खड़े हुए।

जसवंत सिंह अपने राठोड़ वीरों के साथ युद्ध में डटे रहे। आसकरण व दुर्गादास ने राठोड सेना की बागडोर

संभाल ली व जसवंत सिंह की तरफ केन्द्रित होती शत्रु सेना का डट कर प्रतिरोध किया दुर्गादास  असीम

बहादुरी का प्रदर्शन करते हुए घायल हो कर युद्ध भूमि में गिर  पड़े। कुम्भकर्ण सांदू  जो समकालीन कवि

है ने "रतनरासो " में लिखा  है "दुर्गादास राठोड ने एक के बाद एक चार  घोडों  की सवारी की और जब चारों

एक एक कर  के मारे गये तो अंत में वह पांच वे घोड़े पर सवार हुआ ,लेकिन यह पांचवा घोडा भी मारा गया।

तब तक न केवल उसके सारे हथियार  टूट चुके थे बल्कि उसका शरीर भी बुरी तरह से घायल हो चुका था।

अंतत:वह भी रणभूमि में गिर पड़ा।एसा लगता था जैसे एक और भीष्म शरसैया पर लेटा है।जसवंत सिंह के

आदेश से दुर्गादास को युद्ध भूमि से हटा लिया गया और जोधपुर भेज दिया। "

अत्यंत वीरता एवं कोशल से लड़ते हुए स्वयम जसवंत सिंह को भी  दो गहरे  घाव लगे। तब उन्होंने युद्ध में

खेत रहने की ठान ली।परन्तु दोपहर तक , जबकि विजय असम्भव दिखने लगी, आसकरण करनोत व दूसरे

राठोड सेना प्रमुखों ने महाराजा के घोड़े की लगाम पकडली और उसे युद्ध छेत्र से बाहर खींच ले गये।रतन सिंह

राठोड़ ने शेष सेना की बागडोर संभाल ली और अंतिम चरण के युद्ध में लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ।

                   इस समय से लेकर जसवंत सिंह जी के स्वर्गवास तक दुर्गादास  उनके प्रमुख सामन्तो में रहे।

जसवंत सिंह जी की मृत्यु 52 वर्ष की अवस्था में  जमरूद के थाने पर 28 नवम्बर '1678 ई . को हो गयी और

यहीं से दुर्गादास के जीवन का नया और महत्वपूर्ण अध्याय शुरू होता है। महाराजा जसवंत सिंह की मृत्यु के

समय उनका कोई भी पुत्र जीवित नही था। दो रानियाँ गर्भवती थी व पेशावर में उनके साथ  थी। इन

परिस्थितियों में  ओरंगजेब ने जोधपुर को खालसा कर लिया, इधर नागौर के राव इन्द्रसिंह ने जोधपुर पर

अपनी दावेदारी प्रस्तुत की क्यों की यह अमर सिंह का पोत्र था जो कि जसवंत सिंह के जेष्ठ भ्राता थे।

19 फरवरी 1679 ई .को दोनो रानियों के एक एक पुत्र पैदा हुआ , बड़े का नाम अजीतसिंह व छोटे का दलथ्म्भन

रखा गया। यह खबर ओरंगजेब को 27 फरवरी 1679 ई .को अजमेर में मिली जहाँ वह कैम्प किये हुआ था।

उसके मुंह से बरबस निकलपड़ा- "   आदमी कुछ सोचता है खुदा ठीक उसके उल्टा करता है।"

             लाहोर से दोनों महारानियों और राजकुमारों के साथ मारवाड़ का दल दिल्ली के लिए 28 फरवरी को

रवाना  हुआ। इस दल की रक्षा के लिए पेशावर से ही जो सरदार साथ थे उनमे दुर्गादास राठोड़ विशेष प्रतिष्टित

व्यक्ति थे। अप्रेल में यह दल दिल्ली पंहुचा और जोधपुर हवेली में रुका। जोधपुर से भी पंचोली केशरी सिंह ,

भाटी रघुनाथ ,राठोड रूप सिंह उदावत और अन्य कई सरदार दिल्ली पहुंच गये।मई माह में इंद्र सिंह को

जोधपुर का राजा बना दिया और उस के साथ ही महारानियो व राजकुमारों को हवेली खाली कर किशनगढ़ की

हवेली में स्थानांतरिक किया गया।  महारानियों व उनके पुत्रों के प्राणों के संकट को देखते हुए राठोड

रणछोड़दास ,भाटी रघुनाथ ,राठोड रूप सिंह ,दुर्गादास राठोड आदि  मारवाड़  के सरदारों ने राजकुमारों को

चुपके से दिल्ली से निकाल लेने की योजना बनाई।

                            बलुन्दा के राठोड मोहकम सिंह , खिची मुकंददास तथा मारवाड़ के कुछ अन्य सरदारों ने

बादशाह से मारवाड़ जाने की अनुमति मांगी तो ओरंगजेब को कुछ राहत मिली ,  मोहकम सिंह  व उनका

परिवार  पेशावर से साथ आया था। मोहकम सिंह के एक बच्चे को दोनों राजकुमारों से बदल दिया।इस प्रकार

बड़े कड़े पहरे के बीच दोनों राजकुमारों को दिल्ली से सकुशल बाहर निकाल दिया। दिल्ली में 140 सरदार ,725

घुड़सवार व 150 अन्य कर्मचारी रह गये।

                         इस बात से अनभिग्य  ओरंगजेब ने अपना शिकंजा कसना शुरू किया, और आदेश दिया की

राजकुमारों  को शाही हरम में रख कर शिक्षा दी जाएगी। राठोड़ो ने इसका विरोध किया, ओरंगजेब इस से

भड़क उठा। उसने कोतवाल फोलादखान को आदेश दिया की वे जसवंत सिंह की दोनों महारानियों व

राजकुमारों को रूपसिंह राठोड की हवेली उठाकर नूरगढ़ ले जायें ,राठोड अगर विरोध करे तो उन्हें उचित दंड

दिया जावे। 16 जुलाई 1679 ई . को रूपसिंह की हवेली को एक बड़ी फोज के साथ घेर लिया गया।मृत्यु प्रेमी

राजपूतों को समझाने का काफी प्रयास किया गया, लेकिन सफलता नही मिली। अब मुख्य उदेश्य यही था

कि दोनों महारानियो को दिल्ली से सुरक्षित निकल ले जाये व प्रतिरोध करते हुए अधिक से अधिक मारवाड़ के

सरदारों व घुड़सवारों को बचाया जाये। सझने बुझाने से कोई बात नही बनी और लड़ाई शुरू हो गई। प्रसिद्ध

इतिहासकार यदुनाथ सरकार लिखते है -" जब दोनों और से गोलिया चल रही थी तब जोधपुर के एक भाटी

सरदार रघुनाथ ने एक सो वफादार सैनकों के साथ हवेली के एक तरफ से धावा बोला।चेहरों पर मृत्यु की सी

गंभीरता और हाथों में भाले  लिये वीर राठोड शत्रु पर टूट पड़े।" उनके भयानक आक्रमण से शाही सैनिक

घबरा उठे। क्षणिक हडबडाहट का लाभ उठा कर दुर्गादास  और वफादार घुड़सवारों का दल पुरष वेशी दोनों

महारानियो के साथ निकल कर मारवाड़ की और बढ़ने लगे। " डेढ़ घंटे तक रघुनाथ  भाटी दिल्ली की गलियों

को रक्त रंजित करता रहा और अंत में अपने 70 वीरों के साथ मारा गया।"  अब शाही सैनिको का दल दुर्गादास
के पीछे लगा जो अब तक  करीब 4-5 कोस  की दूरी तय  कर  चुके थे। जब शाही सैनिक दल नजदीक आने

लगा तो अब उन को रोकने की जिम्मेदारी  रणछोड दास जोधा की थी। उसने कुछ सैनिको के साथ  शाही

घुड़सवारों को रोक कर रानियों को बचाने  के लिए बहुमूल्य समय अर्जित किया। जब उन का विरोध शांत हो

गया तब मुग़ल सवार उनकी लाशों को रोंद कर बचे हुए दल के पीछे भागे।

                    अब दुर्गादास व उनका छोटा सा दल वापस मुडकर पीछा करने वालों का सामना करने के लिए

विवश हो गये।वहां भयानक युद्ध हुआ और मुग़ल सैनिकों को कुछ देर के लिए रोका गया,  किन्तु स्थिति काबू

से बहार हो चुकी थी। दिल्ली स्थित हवेली से बाहर निकलते समय दोनो महारानियों को भी युद्ध करना पड़ा

था और वे जख्मी हो चुकी थी।पांचला के चन्द्रभान जोधा जिस पर महारानियों का दायत्व था , के सामने अब

कोई विकल्प नही रहा और उसने दोनों के सर काट दिए। उसने भी भयंकर युद्ध करते हुए मातृभूमि के लिए

प्राण निछावर कर दिए।

             शाम हो चुकी थी। मुग़ल सैनिक तीन  भयानक मुठभेड़ो से थक कर पीछे लोट गये व घायल दुर्गादास

व बचे हुए 7 सैनिको का पिच्छा  नही किया। दुर्गादास ने महारानियो की पार्थिव देह को यमुना में प्रवाहित

कर दिया।

         इंद्र सिंह को राजा बना देने से राठोड़ो में रोष फैल गया। 23 जुलाई '1679 ई . को जब अजीत सिंह को

लेकर राठोड  दुर्गादास , मुकन्द दास  खिची आदि मारवाड़ पहुंच गये,इस खबर से विरोध और बढ़ा। उस समय

दुर्गादास जो सालवा में स्वास्थ्य लाभ कर रहा था स्वाभाविक रूप से राठोड सैन्य शक्तियों का केंद्र तथा

मार्गदर्शक बन गया।

27 वर्ष के सतत संघर्ष के उपरांत 18 मार्च 1707 ई . का अजित सिंह का कब्ज़ा जोधपुर पर हो गया और इस

प्रकार  अनवरत प्रयत्न के बाद दुर्गादास राठोड की जीवन साधना सफल हुई। मारवाड़ पराये शासन से मुक्त

हो एक बार फिर अपने शासकों के आधीन आ गया।परन्तु सफलता की इस घड़ी में भी दुर्गादास राठोड

अजीतसिंह के अस्थिर स्वभाव और उसके अंदर पैठी प्रतिरोध की गहरी दुर्भावना से पूरी तरह परिचित था।

अत: अजीत  सिंह से दूरी बनाये रखना ही उसने उचीत  समझा।  अजीत सिंह ने इन्हें महामंत्री पद सम्भालने

व प्रशासन को अपने हाथ में लेने का आग्रह किया जिसे स्वीकार ने में दुर्गादास ने असमर्थता प्रगट करदी ,

अत :17 अप्रेल '1707 को इन्हें  की अनुमति मिल गई। यहाँ से दुर्गादास परिजनों सहित अपने जागीर के गाँव

सादड़ी चले गये, जो मेवाड़ के आधीन था।