सोमवार, 8 जून 2015

रानी कर्मवती और राखी

रानी कर्मवती और राखी

इतिहास में चितौड़ की रानी कर्मवती जिसे कर्णावती भी कहा जाता है द्वारा हुमायूं को राखी भेजने व उस राखी का मान रखने हेतु हुमायूं द्वारा रानी की सहायता की बड़ी बड़ी लिखी हुईं है. इस प्रकरण के बहाने हुमायूं को रिश्ते निभाने वाला इंसान साबित करने की झूंठी चेष्टा की गई. चितौड़ पर गुजरात के बादशाह बहादुरशाह द्वारा आक्रमण के वक्त चितौड़ का शासक महाराणा विक्रमादित्य अयोग्य शासक था. चितौड़ के ज्यादातर सामंत उससे नाराज थे और उनमें से ज्यादातर बहादुरशाह के पास भी चले गए थे. ऐसी स्थिति में चितौड़ पर आई मुसीबत से निपटने के लिए रानी कर्मवती ने सेठ पद्मशाह के हाथों हुमायूं को भाई मानते हुए राखी भेजकर सहायता का अनुरोध किया. हुमायूं ने हालाँकि रानी की राखी का मान रखा और बदले में उसे बहिन मानते हुए ढेरों उपहार भी भेजें. क्योंकि हुमायूं भारतीय संस्कृति में भाई-बहन के रिश्ते का महत्त्व तब से जानता था, जब वह बुरे वक्त में अमरकोट के राजपूत शासक के यहाँ शरणागत था. अमरकोट पर उस समय राजपूत शासक राणा वीरशाल का शासन था| राणा वीरशाल की पटरानी हुमायूं के प्रति अपने सहोदर भाई का भाव रखती थी व भाई तुल्य ही आदर करती थी| हुमायूं के पुत्र अकबर का जन्म भी अमरकोट में शरणागत रहते हुए हुआ था.
भारतीय संस्कृति के इसी महत्त्व को समझते हुए हुमायूं रानी की सहायतार्थ सेना लेकर रवाना हुआ और ग्वालियर तक पहुंचा भी. लेकिन ग्वालियर में हुमायूँ को बहादुरशाह का पत्र मिला जिसमें उसने लिखा था कि वह तो काफिरों के खिलाफ जेहाद कर रहा है. यह पढ़ते ही हुमायूं भारतीय संस्कृति के उस महत्त्व को जिसकी वजह से उसे कभी शरण मिली, उसकी जान बची थी को भूल गया और ग्वालियर से आगे नहीं बढ़ा. काफिरों के खिलाफ जेहाद के सामने हुमायूं भाई-बहन का रिश्ता भूल गया, उसे इस्लाम के प्रसार के आगे ये पवित्र रिश्ता बौना लगने लगा और वह एक माह ग्वालियर में रुकने के बाद 4 मार्च 1533 को वापस आगरा लौट गया.

यही नहीं, जब हुमायूं का एक सरदार मुहम्मद जमा बागी होकर बयाना से भागकर बहादुरशाह की शरण में जा पहुंचा. हुमायूं के उस बागी को वापस मांगने पर बहादुरशाह ने मना कर दिया. तब हुमायूं ने गुजरात पर आक्रमण कर दिया और बहादुरशाह के सेनापति तातारखां को बुरी तरह हरा दिया. उस वक्त बहादुरशाह ने चितौड़ पर दूसरी बार घेरा डाला था. मुग़ल सेना से अपनी सेना के हार का समाचार मिलते ही, बहादुरशाह ने चितौड़ से घेरा उठाकर अपने राज्य रक्षार्थ प्रस्थान करने की योजना बनाई. 
लेकिन उसके एक सरदार ने साफ़ किया कि जब वह चितौड़ पर घेरा डाले है, हुमायूं हमारे खिलाफ आगे नहीं बढेगा. क्योंकि चितौड़ पर बहादुरशाह का घेरा हुमायूं की नजर में काफिरों के खिलाफ जेहाद था. हुआ भी यही हुमायूं सारंगपुर में रुक कर चितौड़ युद्ध के परिणाम की प्रतीक्षा करने लगा. लेकिन कर्णावती की राखी की लाज बचाने जेहाद के बीच बहादुरशाह से दुश्मनी होने के बावजूद नहीं आया. आखिर चितौड़ विजय के बाद बहादुरशाह हुमायूं से युद्ध के लिए गया और मन्दसौर के पास मुग़ल सेना से हुए युद्ध में हार गया. उसकी हार की खबर सुनते ही चितौड़ के 7000 राजपूत सैनिकों ने चितौड़ पर हमला कर उसके सैनिकों को भगा दिया और विक्रमादित्य को बूंदी से लाकर पुन: गद्दी पर आरुढ़ कर दिया.

राजपूत वीरों द्वारा पुन: चितौड़ लेने का श्रेय भी कुछ दुष्प्रचारियों ने हुमायूं को दिया कि हुमायूं ने चितौड़ को वापस दिलवाया. जबकि हकीकत में हुमायूँ ने बहादुरशाह से चितौड़ के लिए कभी कोई युद्ध नहीं किया. बल्कि बहादुरशाह से बैर होने के बावजूद वह चितौड़ मामले में बहादुरशाह के खिलाफ नहीं उतरा. 

वीर योद्धा डूंगर सिंह भाटी

जहा मुस्लिम चादर चढ़ाते है एक राजपूत की मजार पर...
_______वीर योद्धा डूंगर सिंह भाटी_______
सिर कटे धड़ लड़े रखा रजपूती शान

"दो दो मेला नित भरे, पूजे दो दो थोर॥
सर कटियो जिण थोर पर, धड जुझ्यो जिण थोर॥ ”

मतलब :-
एक राजपूत की समाधी पे दो दो जगह मेले लगते है,
पहला जहाँ उसका सर कटा था और दूसरा जहाँ उसका धड लड़ते हुए गिरा था….

राजपुताना वीरो की भूमि है। यहाँ ऐसा कोई गाव नही जिस पर राजपूती खून न बहा हो, जहाँ किसी जुंझार का देवालय न हो, जहा कोई युद्ध न हुआ हो। भारत में मुस्लिम आक्रमणकर्ताओ कोे रोकने के लिए लाखो राजपूत योद्धाओ ने अपना खून बहाया बहुत सी वीर गाथाये इतिहास के पन्नों में दब गयी। इसी सन्दर्भ में एक सच्ची घटना-

उस वक्त जैसलमेर और बहावलपुर(वर्तमान पाकिस्तान में) दो पड़ोसी राज्य थे। बहावलपुर के नवाब की सेना आये दिन जैसलमेर राज्य के सीमावर्ती क्षेत्रो में डकैती, लूट करती थी परन्तु कभी भी जैसलमेर के भाटी वंश के शासको से टकराने की हिम्मत नही करती थी।
उन्ही दिनों एक बार जेठ की दोपहरी में दो राजपूत वीर डूंगर सिंह जी उर्फ़ पन्न राज जी, जो की जैसलमेर महारावल के छोटे भाई के पुत्र थे और उनके भतीजे चाहड़ सिंह जिसकी शादी कुछ दिन पूर्व ही हुयी थी, दोनों वीर जैसलमेर बहावलपुर की सीमा से कुछ दुरी पर तालाब में स्नान कर रहे थे। तभी अचानक बहुत जोर से शोर सुनाई दिया और कन्याओ के चिल्लाने की आवाजे आई। उन्होंने देखा की दूर
बहावलपुर के नवाब की सेना की एक टुकड़ी जैसलमेर रियासत के ही ब्राह्मणों के गाँव "काठाडी" से लूटपाट कर अपने ऊँटो पर लूटा हुआ सामान और साथ में गाय, ब्राह्मणों की औरतो को अपहरण कर जबरदस्ती ले जा रही है। तभी डूंगर सिंह उर्फ़ पनराजजी ने भतीजे चाहड़ सिंह को कहा की तुम जैसलमेर जाओ और वहा महारावल से सेना ले आओ तब तक में इन्हें यहाँ रोकता हूँ। लेकिन चाहड़ समझ गए थे की काका जी कुछ दिन पूर्व विवाह होने के कारण उन्हें भेज रहे हैँ। काफी समझाने पर भी चाहड़ नही माने और अंत में दोनों वीर क्षत्रिय धर्म के अनुरूप धर्म निभाने गौ ब्राह्मण को बचाने हेतु मुस्लिम सेना की ओर अपने घोड़ो पर तलवार लिए दौड़ पड़े।
डूंगर सिंह को एक बड़े सिद्ध पुरुष ने सुरक्षित रेगिस्तान पार कराने और अच्छे सत्कार के बदले में एक चमत्कारिक हार दिया था जिसे वो हर समय गले में पहनते थे।

दोनों वीर मुस्लिम टुकडी पर टूट पड़े और देखते ही देखते बहावलपुर सेना की टुकड़ी के लाशो के ढेर गिरने लगे। कुछ समय बाद वीर चाहड़ सिंह (भतीजे)भी वीर गति को प्राप्त हो गए जिसे देख क्रोधित डूंगर सिंह जी ने दुगुने वेश में युद्ध लड़ना शुरू कर दिया। तभी अचानक एक मुस्लिम सैनिक ने पीछे से वार किया और इसी वार के साथ उनका शीश उनके धड़ से अलग हो गया। किवदंती के अनुसार, शीश गिरते वक़्त अपने वफादार घोड़े से बोला-
"बाजू मेरा और आँखें तेरी"
घोड़े ने अपनी स्वामी भक्ति दिखाई व धड़, शीश कटने के बाद भी लड़ता रहा जिससे मुस्लिम सैनिक भयभीत होकर भाग खड़े हुए और डूंगर जी का धड़ घोड़े पर पाकिस्तान के बहावलपुर के पास पहुंच गया। तब लोग बहावलपुर नवाब के पास पहुंचे और कहा की एक बिना मुंड आदमी बहावलपुर की तरफ उनकी टुकडी को खत्म कर गांव के गांव तबाह कर जैसलमेर से आ रहा है।

वो सिद्ध पुरुष भी उसी वक़्त वही थे जिन्होंने डूंगर सिंह जी को वो हार दिया था। वह समझ गए थे कि वह कोई और नहीं डूंगर सिंह ही हैं। उन्होंने सात 7 कन्या नील ले कर पोल(दरवाजे के ऊपर) पर खडी कर दी और जैसे ही डूंगर सिंह नीचे से निकले उन कन्याओं के नील डालते ही धड़ शांत हो गया।

बहावलपुर, जो की पाकिस्तान में है जहाँ डूंगर सिंह भाटी जी का धड़ गिरा, वहाँ इस योद्धा को मुण्डापीर कहा जाता है। इस राजपूत वीर की समाधी/मजार पर उनकी याद में हर साल मेला लगता है और मुसलमानो द्वारा चादर चढ़ाई जाती है।

वहीँ दूसरी ओर भारत के जैसलमेर का मोकला गाँव है, जहाँ उनका सिर कट कर गिरा उसे डूंगरपीर कहा जाता है। वहाँ एक मंदिर बनाया हुआ है और हर रोज पूजा अर्चना की जाती है। डूंगर पीर की मान्यता दूर दूर तक है और दूर दराज से लोग मन्नत मांगने आते हैँ।

गुरुवार, 28 मई 2015

12 बज गए

एक सरदार पर जोक बनाना औए सुनाना कितना आसान होता है न । सर में पंगडी और बगल में कृपाण रखने वाले सरदार भी अक्सर आपके जोक्स और मजाक को भी नजरअंदाज करते हुए खुश रहते हैं.फिर भी आप उनसे बगैर पूँछे “सरदार जी के बारह बज गए” कहते हुए मजे लेते रहते हैं । ज्यादातर लोगों को लगता है की सरदार के चिल्ड नेचर और भाव-भंगिमाओं के कारण ही इस फ्रेज का लोग इस्तेमाल करते हैं । आज हम आपको बताते हैं की इस जुमले की पीछे की हकीकत क्या है,और निश्चित ही इसे पढ़कर इसका प्रयोग करने वालों को शर्मिंदगी जरूर महसूस होगी । आप ये समझ पायेंगे कि एक सरदार क्या होता है?

1) सत्रहवीं शताब्दी में जब देश में मुगलों का अत्याचार चरम पर था,बहुसंख्यक हिन्दुओं को धर्म-परिवर्तन के लिए अमानवीय यातनाएं दी जाती थीं,औरंगजेब के काल में ये स्थिति और बदतर हो गयी ।

2) मुग़ल सैनिक,धर्मान्तरण के लिए हिन्दू महिलाओं की आबरू को निशाना बनाते थे । अंततः दुर्दांत क़त्ल-ए-आम और बलात्कार से परेशान हो कश्मीरी पंडितों ने आनंदपुर में सिखों के नवमे गुरु तेग बहादुर से मदद की गुहार लगाई.

3) गुरु तेग बहादुर ने बादशाह ‘औरंगजेब’ के दरबार में अपने आपको प्रस्तुत किया और चुनौती दी कि यदि मुग़ल सैनिक उन्हें स्वयं इस्लाम कबूल करवाने में कामयाब रहे तो अन्य हिन्दू सहर्ष ही इस्लाम अपना लेंगे ।

4) औरंगजेब बेहद क्रूर था,परन्तु अपनी कौल का पक्का व्यक्ति था,गुरु जी उसके स्वभाव से परिचित थे । गुरूजी के प्रस्ताव पर उसने सहर्ष स्वीकृति दे दी । गुरु तेग बहादुर और उनके कई शिष्य मरते दम तक अत्याचार सहते हुए शहीद हो गए,पर इस्लाम स्वीकार नहीं किया । इस तरह अपने प्राणों की बलि देकर उन्होंने बांकी हिन्दुओं के हिंदुत्व को बचा लिया ।

5) इसी कारण उन्हें “हिन्द की चादर” से भी जाना जाता है,उनके देहावसान के बाद,उनके सुयोग्य बेटे गुरु गोविन्द सिंह जी ने हिंदुत्व की रक्षा के लिए आर्मी का निर्माण किया,जो कालांतर में ‘सिख’ के नाम से जाने गए ।

6) 1739 में जब इरानी आक्रांता नादिर शाह ने दिल्ली पर हमला करते हुए,हिन्दुस्तान की बहुमूल्य संपदा को लूटना शुरू कर दिया । इन हवसी आक्रमणकारियों ने करीब 2200 भारतीय महिलाओं को बंधक बना लिया.

7) सरदार जस्सा सिंह जो की सिख आर्मी के कमांडर-इन-चीफ थे,ने इन लुटेरों पर हमला करने की योजना बनायी । परन्तु उनकी सेना दुश्मन की तुलना में बहुत छोटी थी इसलिए उन्होंने आधी रात को बारह बजे हमला करने का निर्णय लिया ।

8) महज कुछ सैकड़ों की संख्या में सरदारों ने,कई हजार लुटेरों के दांत खट्टे करते हुए महिलाओं को आजाद करा दिया । सरदारों के शौर्य और वीरता से लुटेरों की नींद और चैन हराम हो गया.

9) यह क्रम नादिर शाह के बाद उसके सेनापति अहमद शाह अब्दाली के काल में भी जारी रहा । अब्दालियों और ईरानियों ने अब्दाल मार्केट में,हिन्दू औरतों को बेंचना शुरू कर दिया.सिखों ने अपनी मिडनाईट(12 बजे) में ही हमला करने की स्ट्रैटिजी जारी रखी और एक बार फिर दुश्मनों की आँखों में धुल झोंकते हुए महिलाओं को बचा लिया ।

10) सफलता पूर्वक लड़कियों और औरतों के सम्मान की रक्षा करते हुए,सिखों ने दुश्मनों और लुटेरों से अपनी इज्जत की हिफाजत की । रात 12 बजे के समय में हमला करते समय लुटेरे कहते थे “सरदारों के बारह बज गए”सरदार और सिख राष्ट्र की अमूल्य धरोहर हैं। सरदार के केश और कृपाण उसे अतुलित धैर्य और साहस से परिपूरित करते हैं ।

सरदार और सिख राष्ट्र की अमूल्य धरोहर हैं, सरदार के केश और कृपाण उसे अतुलित धैर्य और साहस से परिपूरित करते हैं । सिख एक महान कौम है,जिसने मध्यकाल में गुलामी की काली रात में सनातन और हिन्दुस्तान को स्वयं के प्राणों की बलि देकर बचाए रखा । गुरु गोविन्द सिंह जी की प्रसिद्द उक्ति है

सवा लाख से एक लडाऊं,तब मै गुरु गोविंद सिंह कहलाऊं

ऐसी वीरता,साहस और ईमानदारी के पर्याय सरदारों को “12 बज गए” कह कर चिढाना/हँसना बेहद शर्मनाक है । उन विदेशी लुटेरों से रक्षित स्त्रियों के वंशजों द्वारा ‘लुटेरों की ही टिप्पणी’ को दोहराना अनजाने में ही सही पर,किसी देशद्रोह से कम नहीं है।
सरदारों के “12 बज गए” एक ऐसा मुहावरा है जो की उन लुटेरों के ‘गीदड़पाने’ और हमारी वीरता का पर्याय है,इसे लाफिंग मैटर के रूप में नहीं बल्कि गर्व के रूप में कहिये।

रविवार, 24 मई 2015

रानी कर्मवती और राखी

रानी कर्मवती और राखी

इतिहास में चितौड़ की रानी कर्मवती जिसे कर्णावती भी कहा जाता है द्वारा हुमायूं को राखी भेजने व उस राखी का मान रखने हेतु हुमायूं द्वारा रानी की सहायता की बड़ी बड़ी लिखी हुईं है. इस प्रकरण के बहाने हुमायूं को रिश्ते निभाने वाला इंसान साबित करने की झूंठी चेष्टा की गई. चितौड़ पर गुजरात के बादशाह बहादुरशाह द्वारा आक्रमण के वक्त चितौड़ का शासक महाराणा विक्रमादित्य अयोग्य शासक था. चितौड़ के ज्यादातर सामंत उससे नाराज थे और उनमें से ज्यादातर बहादुरशाह के पास भी चले गए थे. ऐसी स्थिति में चितौड़ पर आई मुसीबत से निपटने के लिए रानी कर्मवती ने सेठ पद्मशाह के हाथों हुमायूं को भाई मानते हुए राखी भेजकर सहायता का अनुरोध किया. हुमायूं ने हालाँकि रानी की राखी का मान रखा और बदले में उसे बहिन मानते हुए ढेरों उपहार भी भेजें. क्योंकि हुमायूं भारतीय संस्कृति में भाई-बहन के रिश्ते का महत्त्व तब से जानता था, जब वह बुरे वक्त में अमरकोट के राजपूत शासक के यहाँ शरणागत था. अमरकोट पर उस समय राजपूत शासक राणा वीरशाल का शासन था| राणा वीरशाल की पटरानी हुमायूं के प्रति अपने सहोदर भाई का भाव रखती थी व भाई तुल्य ही आदर करती थी| हुमायूं के पुत्र अकबर का जन्म भी अमरकोट में शरणागत रहते हुए हुआ था.
भारतीय संस्कृति के इसी महत्त्व को समझते हुए हुमायूं रानी की सहायतार्थ सेना लेकर रवाना हुआ और ग्वालियर तक पहुंचा भी. लेकिन ग्वालियर में हुमायूँ को बहादुरशाह का पत्र मिला जिसमें उसने लिखा था कि वह तो काफिरों के खिलाफ जेहाद कर रहा है. यह पढ़ते ही हुमायूं भारतीय संस्कृति के उस महत्त्व को जिसकी वजह से उसे कभी शरण मिली, उसकी जान बची थी को भूल गया और ग्वालियर से आगे नहीं बढ़ा. काफिरों के खिलाफ जेहाद के सामने हुमायूं भाई-बहन का रिश्ता भूल गया, उसे इस्लाम के प्रसार के आगे ये पवित्र रिश्ता बौना लगने लगा और वह एक माह ग्वालियर में रुकने के बाद 4 मार्च 1533 को वापस आगरा लौट गया.

यही नहीं, जब हुमायूं का एक सरदार मुहम्मद जमा बागी होकर बयाना से भागकर बहादुरशाह की शरण में जा पहुंचा. हुमायूं के उस बागी को वापस मांगने पर बहादुरशाह ने मना कर दिया. तब हुमायूं ने गुजरात पर आक्रमण कर दिया और बहादुरशाह के सेनापति तातारखां को बुरी तरह हरा दिया. उस वक्त बहादुरशाह ने चितौड़ पर दूसरी बार घेरा डाला था. मुग़ल सेना से अपनी सेना के हार का समाचार मिलते ही, बहादुरशाह ने चितौड़ से घेरा उठाकर अपने राज्य रक्षार्थ प्रस्थान करने की योजना बनाई. 
लेकिन उसके एक सरदार ने साफ़ किया कि जब वह चितौड़ पर घेरा डाले है, हुमायूं हमारे खिलाफ आगे नहीं बढेगा. क्योंकि चितौड़ पर बहादुरशाह का घेरा हुमायूं की नजर में काफिरों के खिलाफ जेहाद था. हुआ भी यही हुमायूं सारंगपुर में रुक कर चितौड़ युद्ध के परिणाम की प्रतीक्षा करने लगा. लेकिन कर्णावती की राखी की लाज बचाने जेहाद के बीच बहादुरशाह से दुश्मनी होने के बावजूद नहीं आया. आखिर चितौड़ विजय के बाद बहादुरशाह हुमायूं से युद्ध के लिए गया और मन्दसौर के पास मुग़ल सेना से हुए युद्ध में हार गया. उसकी हार की खबर सुनते ही चितौड़ के 7000 राजपूत सैनिकों ने चितौड़ पर हमला कर उसके सैनिकों को भगा दिया और विक्रमादित्य को बूंदी से लाकर पुन: गद्दी पर आरुढ़ कर दिया.

राजपूत वीरों द्वारा पुन: चितौड़ लेने का श्रेय भी कुछ दुष्प्रचारियों ने हुमायूं को दिया कि हुमायूं ने चितौड़ को वापस दिलवाया. जबकि हकीकत में हुमायूँ ने बहादुरशाह से चितौड़ के लिए कभी कोई युद्ध नहीं किया. बल्कि बहादुरशाह से बैर होने के बावजूद वह चितौड़ मामले में बहादुरशाह के खिलाफ नहीं उतरा. 

शनिवार, 9 मई 2015

राणा प्रताप का एक किस्सा

जब अकबर ने चितौड़ पर कब्जा कर लिया था और राणा प्रताप को किला छोड जंगल में रहना पडा था तब राणा ने अकबर को सबक सिखाने के लिए एक योजना बनाई तब एक रात राणा और एक भील और कुछ साथियों के साथ मिलकर किले पर गए लेकिन अकबर ने अपनी सुरक्षा के लिए किले के चारों तरफ खाई खुदवाई हुई थी और खाई में दो भुखे शेरों को छोड दिया था उस समय भील ने राणा जी से निवेदन किया कि वे उस के शरीर को चार हिस्सों में काटे दो हिस्सों जाते समय शेरों को दे व दो हिस्सों आते समय तब राणा को भील पर बहुतगर्व महसूस हुआ और राणा ने भील के चार हिस्सों किए शेरों को दिए और किले में दाखिल हुए उस समय अकबर सो रहे थे राणा ने सोते अकबर पर वार ना कर सबक सिखाने के लिए अकबर कि दाहिने साईड की मुछं और कलमे कट ली क्यो की अकबर सुबह उठते ही अपनी दाहिने मुछं व कलमो पर हाथ लगाता था ... जब अकबर सुबह उठा तो उसने अपनी दाहिने मुछं कलमो हाथ लगाया वो कटी हुई थी और सामने दिवार पर लिखा था कि " सोते पर राणा वार नहीं करता में यहाँ तक आ सकता हूँ तो सोच लो क्या कर  सकता था " फिर क्या अकबर चितौड़ दिल्ली रवाना हो गए .......!!

मंगलवार, 21 अप्रैल 2015

भगवान परशुराम

भगवान परशुराम को भगवन विष्णु का छठवां अवतार माना जाता हैं।  भगवान परशुराम के बारे में यह प्रसिद्ध है कि उन्होंने तत्कालीन अत्याचारी और निरंकुश क्षत्रियों का 21 बार संहार किया। लेकिन क्या आप जानते हैं भगवान परशुराम ने आखिर ऐसा क्यों किया? इसी का जवाब देती है एक रोचक पुराण कथा -

महिष्मती नगर के राजा सहस्त्रार्जुन क्षत्रिय समाज के हैहय वंश के राजा कार्तवीर्य और रानी कौशिक के पुत्र थे | सहस्त्रार्जुन का वास्तवीक नाम अर्जुन था।  उन्होने दत्तत्राई को प्रसन्न करने के लिए घोर तपस्या की। दत्तत्राई उसकी तपस्या से प्रसन्न हुए और उसे वरदान मांगने को कहा तो उसने दत्तत्राई से 10000 हाथों का आशीर्वाद प्राप्त किया।  इसके बाद उसका नाम अर्जुन से सहस्त्रार्जुन पड़ा | इसे सहस्त्राबाहू और राजा कार्तवीर्य पुत्र होने के कारण कार्तेयवीर भी कहा जाता है |

कहा जाता है महिष्मती सम्राट सहस्त्रार्जुन अपने घमंड में चूर होकर धर्म की सभी सीमाओं को लांघ चूका था | उसके अत्याचार व अनाचार से जनता त्रस्त हो चुकी थी | वेद - पुराण और धार्मिक ग्रंथों को मिथ्या बताकर ब्राह्मण का अपमान करना, ऋषियों के आश्रम को नष्ट करना, उनका अकारण वध करना, निरीह प्रजा पर निरंतर अत्याचार करना, यहाँ तक की उसने अपने मनोरंजन के लिए मद में चूर होकर अबला स्त्रियों के सतीत्व को भी नष्ट करना शुरू कर दिया था |

एक बार सहस्त्रार्जुन अपनी पूरी सेना के साथ झाड - जंगलों से पार करता हुआ जमदग्नि ऋषि के आश्रम में विश्राम करने के लिए पहुंचा | महर्षि जमदग्रि ने सहस्त्रार्जुन को आश्रम का मेहमान समझकर स्वागत सत्कार में कोई कसर नहीं छोड़ी | कहते हैं ऋषि जमदग्रि के पास देवराज इन्द्र से प्राप्त दिव्य गुणों वाली कामधेनु नामक अदभुत गाय थी | महर्षि ने उस गाय के मदद से कुछ ही पलों में देखते ही देखते पूरी सेना के भोजन का प्रबंध कर दिया | कामधेनु के ऐसे विलक्षण गुणों को देखकर सहस्त्रार्जुन को ऋषि के आगे अपना राजसी सुख कम लगने लगा। उसके मन में ऐसी अद्भुत गाय को पाने की लालसा जागी। उसने ऋषि जमदग्नि से कामधेनु को मांगा। किंतु ऋषि जमदग्नि ने कामधेनु को आश्रम के प्रबंधन और जीवन के भरण-पोषण का एकमात्र जरिया बताकर कामधेनु को देने से इंकार कर दिया। इस पर सहस्त्रार्जुन ने क्रोधित होकर ऋषि जमदग्नि के आश्रम को उजाड़ दिया और कामधेनु को ले जाने लगा। तभी कामधेनु सहस्त्रार्जुन के हाथों से छूट कर स्वर्ग की ओर चली गई।

जब परशुराम अपने आश्रम पहुंचे तब उनकी माता रेणुका ने उन्हें सारी बातें विस्तारपूर्वक बताई। परशुराम माता-पिता के अपमान और आश्रम को तहस नहस देखकर आवेशित हो गए। पराक्रमी परशुराम ने उसी वक्त दुराचारी सहस्त्रार्जुन और उसकी सेना का नाश करने का संकल्प लिया। परशुराम अपने परशु अस्त्र को साथ लेकर सहस्त्रार्जुन के नगर महिष्मतिपुरी पहुंचे। जहां सहस्त्रार्जुन और परशुराम का युद्ध हुआ। किंतु परशुराम के प्रचण्ड बल के आगे सहस्त्रार्जुन बौना साबित हुआ। भगवान परशुराम ने दुष्ट सहस्त्रार्जुन की हजारों भुजाएं और धड़ परशु से काटकर कर उसका वध कर दिया।

ऋषि जमदग्नि और परशुराम

सहस्त्रार्जुन के वध के बाद पिता के आदेश से इस वध का प्रायश्चित करने के लिए परशुराम तीर्थ यात्रा पर चले गए। तब मौका पाकर सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने अपने सहयोगी क्षत्रियों की मदद से तपस्यारत महर्षि जमदग्रि का उनके ही आश्रम में सिर काटकर उनका वध कर दिया | सहस्त्रार्जुन पुत्रों ने आश्रम के सभी ऋषियों का वध करते हुए, आश्रम को जला डाला | माता रेणुका ने सहायतावश पुत्र परशुराम को विलाप स्वर में पुकारा | जब परशुराम माता की पुकार सुनकर आश्रम पहुंचे तो माता को विलाप करते देखा और माता के समीप ही पिता का कटा सिर और उनके शरीर पर 21 घाव देखे।

यह देखकर परशुराम बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने शपथ ली कि वह हैहय वंश का ही सर्वनाश नहीं कर देंगे बल्कि उसके सहयोगी समस्त क्षत्रिय वंशों का 21 बार संहार कर भूमि को क्षत्रिय विहिन कर देंगे। पुराणों में उल्लेख है कि भगवान परशुराम ने अपने इस संकल्प को पूरा भी किया।

पुराणों में उल्लेख है कि भगवान परशुराम ने  21  बार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन करके उनके रक्त से समन्तपंचक क्षेत्र के पाँच सरोवर को भर कर अपने संकल्प को पूरा किया | कहा जाता है की महर्षि ऋचीक ने स्वयं प्रकट होकर भगवान परशुराम को ऐसा घोर कृत्य करने से रोक दिया था तब जाकर किसी तरह क्षत्रियों का विनाश भूलोक पर रुका | तत्पश्चात भगवान परशुराम ने अपने पितरों के श्राद्ध क्रिया की एवं उनके आज्ञानुसार अश्वमेध और विश्वजीत यज्ञ किया |

शनिवार, 18 अप्रैल 2015

श्री ओम बन्ना


ओम बन्ना एक पवित्र दर्शनीय स्थल है जो पाली जिले में स्थित है ये पाली शहर से मात्र बीस किमी दूर है यहाँ लोग सफल यात्रा और मनोकामना मांगने दूर दूर से आते है यहाँ ये एक बुलेट के रूप में पूजे जाते है ये मंदिर पूरी दुनिया का अनोखा और एक मात्र बुलेट मंदिर है

परिचय--

ओम बन्ना का पूरा नाम ओम सिंह राठौड है ये चोटिला ठिकाने के ठाकुर जोग सिंह जी के पुत्र थे राजपूतो में युवाओ को बन्ना कहा जाता है इसी वजह से ओम सिंह राठौड सभी में ओम बन्ना के रूप में प्रसिद्ध हुए

क्या है मान्यता

सन 1988 में ओम बन्ना अपनी बुलेट पर अपने ससुराल बगड़ी,साण्डेराव से अपने गाँव चोटिला आ रहे थे तभी उनका एक्सीडेंट एक पेड़ से टकराने से हो गया ओम सिंह राठौड़ की उसी वक़्त मृत्यु हो गयी एक्सीडेंट के बाद उनकी बुलेट को रोहिट थाने ले जाया गया पर अगले दिन पुलिस कर्मियों को वो बुलेट थाने में नही मिली वो बुलेट बिना सवारी चल कर उसी स्थान पर चली गयी अगले दिन फिर उनकी बुलेट को रोहिट थाने ले जाया गया पर फिर वही बात हुयी ऐसा तीन बार हुआ चौथी बार पुलिस ने बुलेट को थाने में चैन से बाँध कर रखा पर बुलेट सबके सामने चालू होकर पुनः अपने मालिक सवार के दुर्घटना स्थल पर पहुंच गयी अतः ग्रामीणो और पुलिस वालो ने चमत्कार मान कर उस बुलेट को वही पर रख दिया उस दिन से आज तक वहा दूसरी कोई बड़ी दुर्घटना वह नही हुयी जबकि पहले ये एरिया राजस्थान के बड़े दुर्घटना क्षेत्रो में से एक था  ओम बन्ना की पवित्र आत्मा आज भी वह लोगो को अपनी मौजूदगी का एहसास कराती है आज भी रोहट थाने के नए ठाणेदार जोइनिंग से पहले वह धोक देते है

पूजा स्थल--

पाली जोधपुर राष्ट्रीय राज मार्ग पर ये स्थान है यहा आज भी वही बुलेट मौजूद है और Vओम बन्ना का चबूतरा भी है जहा उनका एक्सीडेंट हुआ था यहाँ दिन रात जोत जलती रहती है और ग्रामीण यहाँ नारियल ,फूल,दारू आधी चढ़ावा चढ़ते है दूर दूर से श्रद्धालु यहाँ आते है         इसे अगले ग्रुप मे भेजे और चमत्कार देखे।