शनिवार, 18 जुलाई 2020

"परमवीर चक्र" मेजर पीरू सिंह शेखावत

"परमवीर चक्र" मेजर पीरू सिंह शेखावत -   
बलिदान दिवस 18 जुलाई 1948

मेजर पीरू सिंह शेखावत  का जन्म 20 मई 1918 को गाँव रामपुरा बेरी, (झुँझुनू) राजस्थान में हुआ . वह 20 मई 1936 को 6 राजपुताना रायफल्स में भर्ती हुए.

1948 की गर्मियों में जम्मू & कश्मीर ऑपरेशन के दौरान पाकिस्तानी सेना व कबाईलियों ने संयुक्त रूप से टीथवाल सेक्टर में भीषण आक्रमण किया.  इस हमले में दुशमन ने भारतीय सेना को किशनगंगा नदी पर बने अग्रिम मोर्चे छोड़ने पर मजबूर कर दिया.

भारतीय हमले 11 जुलाई 1948 को शुरू हुए. यह ऑपरेशन 15 जुलाई तक अच्छी तरह जारी रहे. इस इलाके में दुश्मन एक ऊँची पहड़ी पर पहाड़ी पर स्थित था , अत: आगे बढ़ने के लिए उस जगह पर कब्जा करना बहुत ही आवश्यक था. उस के नजदीक ही दुश्मन ने एक और पहाड़ी पर बहुत ही मजबूत मोर्चाबंदी कर रखी थी.  6 राजपुताना रायफल्स को इन दोनों पहाड़ी मोर्चों पर फिर से कब्ज़ा  करने का  विशेष काम दिया गया.

इस हमले के दौरान पीरू सिंह इस कंपनी के अगुवाई करने वालों में से थे, जिस के आधे से ज्यादा सैनिक दुश्मन की भीषण गोलाबारी में शहीद  हों चुके थे . पीरू सिंह दुश्मन की उस मीडियम मशीन गन पोस्ट की तरफ दौड़ पड़े जो उन के साथियों पर मौत बरसा रही थी. दुश्मन के बमों के छर्रों से पीरू सिंह के कपड़े तार - तार हो गए व शरीर बहुत सी जगह से बुरी तरह घायल हो गया, पर यह घाव वीर पीरू सिंह को आगे बढ़ने से रोक नहीं सके.  वह राजपुताना रायफल्स का जोशीला युद्धघोष " राजा रामचंद्र की जय" करते लगातार आगे ही बढ़ते रहे. आगे बढ़ते हुए उन्होनें मीडियम मशीन गन से फायर कर रहे दुश्मन सैनिक को अपनी स्टेनगन से मार डाला व कहर बरपा रही मशीन गन बंकर के सभी दुश्मनों को मारकर उस पोस्ट पर कब्जा कर लिया.

तब तक उन के सारे साथी सैनिक या तो घायल होकर या प्राणों का बलिदान कर रास्ते में पीछे ही पड़े रह गए.  पहाड़ी से दुश्मन को हटाने की जिम्मेदारी मात्र अकेले पीरू सिंह पर ही रह गई . शरीर से बहुत अधिक खून बहते हुए भी वह दुश्मन की दूसरी मीडियम मशीन गन पोस्ट पर हमला करने को आगे बढ़ते, तभी एक बम ने उन के चेहरे को घायल कर दिया. उन के चेहरे व आँखो से खून टपकने लगा तथा वह लगभग अँधे हो गए. तब तक उन की स्टेन गन की सारी गोलियां भी खत्म हो चुकी थी . फिर भी दुश्मन के जिस बँकर पर उन्होने कब्जा किया था, उस बँकर से वह बहादुरी से रेंगते हुए बाहर निकले, व दूसरे बँकर पर बम फेंके.

बम फेंकने के बाद पीरू सिंह दुश्मन केे उस बँकर में कूद गए व दो दुश्मन सैनिकों को मात्र स्टेन गन के आगे लगे चाकू से मार गिराया. जैसे ही पीरू सिंह तीसरे बँकर पर हमला करने के लिए बाहर निकले उन के सिर में एक गोली आकर लगी फिर भी वो तीसरे बँकर की तरफ बढ़े व उस के मुहाने पर गिरते देखे गए.

तभी उस बँकर में एक भयंकर धमाका हुआ, जिस से साबित हो गया की पीरू सिंह के फेंके बम ने अपना काम कर दिया है. परतुं तब तक पीरू सिंह के घावों से बहुत सा खून बह जाने के कारण वो शहीद हो गए. उन्हे कवर फायर दे रही "C" कंपनी के कंपनी कमांडर ने यह सारा दृश्य अपनी आँखों से देखा. अपनी विलक्षण वीरता के बदले उन्होने अपने जीवन का मोल चुकाया, पर अपने अन्य साथियों के समक्ष अपनी एकाकी वीरता, दृढ़ता व मजबूती का अप्रतिम उदाहरण प्रस्तुत किया. इस कारनामे को विश्व के अब तक के सबसे साहसिक कारनामो में एक माना जाता है.

अपनी प्रचंड वीरता, कर्त्तव्य के प्रति निष्ठा और प्रेरणादायी कार्य के लिए कंपनी हवलदार मेजर पीरू सिंह भारत के युद्धकाल के सर्वोच्च वीरता पुरस्कार "परमवीर चक्र" से मरणोपरांत सम्मानित किए गए.

बुधवार, 1 जुलाई 2020

Thakur Balwant Singh Bakhasar

The story of a Rajasthani Dacoit ., who helped guide the Indian Para Commandos in 1971 war to their targets in Pakistan



He is Thakur Balwant Singh Bakhasar from Barmer, Rajasthan.

 He played an active role in helping the Indian Army reach Sindh and capture Pakistani areas during the Indo-Pak War of 1971.

 He was active as a dacoit in and around Barmer, parts of Gujarat and Sindh in Pakistan and was dreaded in these regions within a circumference of 100 km in the pre 1971s.

 He was familiar of each and every corner and pathway of these regions. 

His knowledge of untrodden routes proved a boon for the Indian Army in the war. Ultimately India won this war against Pakistan.

Indian Para Commandos in this region during the 1971 war was led by Lt.Col. Sawai Bhawani Singh. 

The Col was aware of Balwant Singh’s knowledge of routes in that region. He sought the dacoit’s guidance of routes to which the latter readily agreed.  

The Indian Army first attacked and captured Chachro town in Pakistan on December 7, 1971.

 Thereafter, the Indian Army commandos attacked Virawah and captured it. In total, Dacoit Balwant Singh Bakhasar not only guided the Indian Army but also (along with his associates) participated as soldiers to capture many villages of Pakistan.

Interestingly, Balwant Singh Bakhasar started his pastime as a Gaurakshak.

 Pakistanis often came to India along the borders and stole cattle. Balwant Singh Bakhasar saved the cows, killing the Pakistani cattle thieves. 

He saved many cows from being stolen and encountered many cattle thieves. 

This stopped the the Pakistanies from further entering the Indian borders and stopped their activities. They dreaded Balwant Singh.

Dacoit Th. Balwant Singh Bakhasar became a hero and his fame as a patriot spread far and wide.

 The Rajasthan government pardoned him. Lt.Col. 

Sawai Bhawani Singh was awarded with Mahaveer Chakra. 

पागी



• 2008 फ़ील्ड मार्शल मानेक शॉ वेलिंगटन ( तामिलनाडू ) के अस्पताल में भर्ती थे । गंभीर अस्वस्थता और अर्धमूर्छा में वे एक नाम अक्सर लेते थे - पागी-पागी !! डाक्टरों ने एक दिन पूछ दिया “ सर हू इज दिस पागी ?” सैम साहब ने स्वयम ब्रीफ़ किया !!

• 1971 भारत युद्ध जीत चुका था , जनरल मानिक शॉ ढाका में थे । आदेश दिया कि पागी को बुलवाओ, डिनर आज उसके साथ करूँगा ! हेलिकॉप्टर भेजा गया। हेलिकॉप्टर पर सवार होते समय पागी की एक थैली नीचे रह गई, जिसे उठाने के लिए हेलिकॉप्टर वापस उतारा गया था। अधिकारियों ने थैली देखी तो दंग रह गए, क्योंकि उसमें दो रोटी, प्याज और बेसन का एक पकवान (गांठिया) भर था। एक रोटी सैम साहब ने खाई और दूसरी पागी ने । 

• उत्तर गुजरात के सुईगांव अंतरराष्ट्रीय सीमा क्षेत्र की एक बॉर्डर पोस्ट को रणछोड़दास पोस्ट नाम दिया गया । यह पहली बार हुआ कि किसी आम आदमी के नाम पर सेना की कोई पोस्ट हो । मूर्ति भी लगाई गई । 

पागी यानी मार्गदर्शक । वो व्यक्ति जो रेगिस्तान में रास्ता दिखाए । रणछोड़दास रबारी को जनरल सैम मानिक शॉ  इसी नाम से बुलाते थे । 

• गुजरात के बनासकांठा ज़िले के पाकिस्तान सीमा से सटे गाँव पेथापुर गथड़ों के थे रणछोडदास । भेड़ बकरी व ऊँट पालन का काम करते थे । जीवन में बदलाव तब आया जब 58 वर्ष की आयु में बनासकांठा के पुलिस अधीक्षक वनराज सिंह झाला ने उन्हें पुलिस के मार्गदर्शक के रूप में रख लिया । 

• हुनर इतना कि ऊँट के पैरों के निशान देख कर बता देते थे कि उसपर कितने आदमी सवार है । इंसानी पैरों के निशान देख कर वजन से लेकर उम्र तक का अंदाज़ा लगा लेते थे । कितने देर पहले का निशान है , कितनी दूर तक गया होगा सब एकदम सटीक आंकलन जैसे कोई कम्प्यूटर गणना कर रहा हो । 

• 1965 युद्ध की शुरुआत में पाकिस्तान सेना ने भारत के गुजरात में कच्छ सीमा स्थित विधकोट  पर कब्ज़ा कर लिया , इस मुठभेड़ में लगभग 100 भारतीय सैनिक शहीद ही गये थे । और भारतीय सेना की एक 10 हजार सैनिकों वाली टुकड़ी को तीन दिन में छारकोट पहुँचना जरूरी था । तब ज़रूरत पड़ी थी पहली बार रणछोडदास पागी की , रेगिस्तानी रास्तों पर अपनी पकड़ की बदौलत सेना को मात्र ढाई दिन में मंज़िल तक पहुँचा दिया था । सेना के मार्गदर्शन के लिए उन्हें सैम साहब ने स्वयम चुना था । सेना में एक पद सृजित किया गया था ..  पागी 

• भारतीय सीमा में छिपे १२०० पाकिस्तानी सैनिकों की लोकेशन सिर्फ़ उनके पदचिह्नों से पता कर भारतीय सेना को बता दी थी । इतना काफ़ी था सेना के लिए वो मोर्चा फतेह करने के लिए ।

• 1971 युद्ध में सेना के मार्गदर्शन के साथ साथ अग्रिम मोर्चे तक गोला बारूद पहुँचाना भी पागी के काम का हिस्सा था । पाकिस्तान के पालीनगर शहर पर जो भारतीय तिरंगा फहरा था उस जीत में पागी की भूमिका अहम थी । सैम साब ने स्वयम ३०० रूपय का नक़द पुरस्कार अपनी जेब से दिया था ।

 पागी को तीन सम्मान भी मिले 65 व 71 युद्ध में उनके योगदान के लिए - संग्राम पदक , पुलिस पदक व समर सेवा पदक

 27 जून 2008 को सैम मानिक शॉ की मृत्यु हुई और 2009 में पागी ने भी सेना से ऐच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली । तब पागी की उम्र 108 वर्ष थी । 112 वर्ष की आयु में 2013 में पागी का निधन हो गया 

• अब वे गुजराती लोकगीतों का हिस्सा है । उनकी शौर्य गाथाएँ युगों तक गाई जाएगी । अपनी देशभक्ति, वीरता, बहादुरी, त्याग, समर्पण, शालीनता के कारण भारतीय इतिहास में हमेशा के लिए अमर हो गए रणछोड़दास रबारी यानि हमारे पागी । 


सोमवार, 8 जून 2020

संत पीपाजी महाराज

‘पीपा पाप न कीजिये’  
                संत पीपाजी महाराज 

राजस्थान में गढ़ गागरौन एक सुप्रसिद्ध किला रहा है | ख्यातों के अनुसार इस स्थान पर पहले डोड राजपूतों का शासन था | बाद में गूंदळराव खीची (चौहान) ने जायल (नागौर) से जाकर पृथ्वीराज द्वितीय के शासनकाल में गागरौन क्षेत्र के डोडों के बारहों गढ़ों पर कब्जा कर लिया| इसी खीची शाखा में देवनसी हुए,जिन्होंने बीजळदेव डोड को परास्त कर फिर से इस क्षेत्र पर हक जमाया | डोड राजपूतों के नाम से पहले इसका नाम डोडरगढ़ था, पर देवनसी ने अपनी बहन गंगा के नाम से गढ़ बनाकर उसका नाम गढ़ गागरौन रखा | पीपाजी देवनसी खीची की 11वीं पीढ़ी में यहाँ के शासक हुए |
                    ‘भक्तमाल’ के लेखक नाभादास इन्हें रामानंद के बारह शिष्यों में से एक मानते हैं , इस तरह वे कबीर के समकालीन ठहरते हैं | लोक मान्यताओं में इनका जन्म चैत्र पूर्णिमा विक्रमी 1380 और देहावसान चैत्र सुदी एकम विक्रमी 1441 मानते हैं | यहाँ यह उल्लेखनीय है कि स्वामी रामानंद के जहां अन्य शिष्य पिछड़े व दलित समुदाय से थे, वहीँ पीपाजी ही एकमात्र सवर्ण क्षत्रिय समुदाय से थे |
राव पीपा ने अपने राज्यकाल में कई युद्धों का सामना किया | टोडा-युद्ध इन्होंने अपने ससुर सोलंकी डूंगरसी की सहायतार्थ लड़ा था | फिरोज तुगलक़ के समय उसकी सेना ने मालवा जाते समय गढ़ गागरौन का घेरा भी डाला था, पर उसे सफलता नहीं मिली थी | पीपाजी के ये दोनों युद्ध उनकी वीर-वृति के सूचक हैं, पर अचानक एक घटना ने उन्हें सांसारिकता से विलग कर दिया | 
लोकाख्यानों के अनुसार पीपाजी शिकार के शौक़ीन थे और अक्सर करने जाते थे | एक दिन उनके सामने से एक हरिणी निकली,जिस पर पीपाजी ने तलवार से वार किया | हरिणी के दो टुकड़े हो गये | गर्भवती हरिणी के साथ ही उसका बच्चा भी कट गया | बस वही उनके जीवन परिवर्तन का क्षण सिद्ध हुआ | वे करुणा के आलोक से जगमगा उठे | उन्होंने रक्तरंजित तलवार वहीँ फेंक दी और वैराग्यवृति धारण कर ली | राजपाट उन्हें बौने और व्यर्थ लगने लगे | वे फिर राजधानी लौटे ही नहीं, वहीँ कुटिया बनाकर रहने लगे और सुई-धागे से कपड़े सीने लगे | उनके अधिकाँश शिष्य क्षत्रिय ही थे, जो उनकी अहिंसावृति से प्रभावित हुए थे | वे भी सिलाई का काम करने लगे | इस तरह एक पीपावर्गीय समुदाय पैदा हुआ, जो राजस्थान,गुजरात , मालवा और देश के अन्य भागों में रहते हैं | दर्जी का धंधा करनेवाले इस समुदाय के सारे गौत्र राजपूत समुदाय के हैं |
उनकी भक्ति निर्गुण समुदाय की थी और करुणा उनके संदेशों का सार है – 
जीव मार जौहर करै, खातां करै बखाण |
पीपा परतख देख ले, थाळी माँय मसाँण ||
पीपा पाप न कीजियै, अळगौ रहीजै आप |
करणी जासी आपरी, कुण बेटौ कुण बाप ||
संत पीपाजी की शिक्षाएं धर्म के उदार पक्ष से संबंधित हैं| सहजता का दर्शन उनकी शिक्षाओं का सार है –
अहंकारी पावै नहीं, कितनोई धरै समाध |
पीपा सहज पहूंचसी, साहिब रै घर साध ||
गढ़ गागरौन में पीपाजी का मंदिर, छतरी और बाग़ है | काशी में ‘पीपाकूप’, द्वारिका के पास आरमाड़ा में ‘पीपावट’, अमरोली (गुजरात) में ‘पीपाबाव’है | जोधपुर के जिस पीपल के नीचे पीपाजी ने तपस्या की थी वह स्थान आज सुप्रसिद्ध पीपाड़ कस्बा है | काळीसिंध और आहड नदियों के संगम पर एक पीपाजी का गुफामन्दिर भी स्थित है | चैत्र-पूर्णिमा पर सम्पूर्ण भारत में पीपाजी की जयंती मनाई जाती है |

गुरुवार, 4 जून 2020

जोधाबाई की एतिहासिकता

जब भी कोई हिन्दू राजपूत किसी मुग़ल की गद्दारी की बात करता है तो कुछ मुग़ल प्रेमियों द्वारा उसे जोधाबाई का नाम लेकर चुप करने की कोशिश की जाती है!

बताया जाता है की कैसे जोधा ने अकबर की आधीनता स्वीकार की या उससे विवाह किया!

परन्तु अकबर कालीन किसी भी इतिहासकार ने जोधा और अकबर की प्रेम कहानी का कोई वर्णन नही किया!

सभी इतिहासकारों ने अकबर की सिर्फ 5 बेगम बताई है!
1.सलीमा सुल्तान
2.मरियम उद ज़मानी
3.रज़िया बेगम
4.कासिम बानू बेगम
5.बीबी दौलत शाद

अकबर ने खुद अपनी आत्मकथा अकबरनामा में भी किसी हिन्दू रानी से विवाह का कोई जिक्र नहीं किया!

परन्तु हिन्दू राजपूतों को नीचा दिखने के लिए कुछ इतिहासकारों ने अकबर की मृत्यु के करीब 300 साल बाद 18 वीं सदी में “मरियम उद ज़मानी”, को जोधा बाई बता कर एक झूठी अफवाह फैलाई!

और इसी अफवाह के आधार पर अकबर और जोधा की प्रेम कहानी के झूठे किस्से शुरू किये गए!

जबकि खुद अकबरनामा और जहांगीर नामा के अनुसार ऐसा कुछ नही था!

18वीं सदी में मरियम को हरखा बाई का नाम देकर हिन्दू बता कर उसके मान सिंह की बेटी होने का झूठ पहचान शुरू किया गया!

फिर 18वीं सदी के अंत में एक ब्रिटिश लेखक जेम्स टॉड ने अपनी किताब "एनालिसिस एंड एंटटीक्स ऑफ़ राजस्थान" में मरीयम से हरखा बाई बनी इसी रानी को जोधा बाई बताना शुरू कर दिया!

और इस तरह ये झूठ आगे जाकर इतना प्रबल हो गया की आज यही झूठ भारत के स्कूलों के पाठ्यक्रम का हिस्सा बन गया है और जन जन की जुबान पर ये झूठ सत्य की तरह आ चूका है!

और इसी झूठ का सहारा लेकर राजपूतों को निचा दिखाने की कोशिश जारी है!

जब भी मैं जोधाबाई और अकबर के विवाह प्रसंग को सुनता या देखता हूं तो मन में कुछ अनुत्तरित सवाल कौंधने लगते हैं!

आन,बान और शान के लिए मर मिटने वाले शूरवीरता के लिए पूरे विश्व मे प्रसिद्ध भारतीय क्षत्रिय अपनी अस्मिता से क्या कभी इस तरह का समझौता कर सकते हैं??

हजारों की संख्या में एक साथ अग्नि कुंड में जौहर करने वाली क्षत्राणियों में से कोई स्वेच्छा से किसी मुगल से विवाह कर सकती हैं??

जोधा और अकबर की प्रेम कहानी पर केंद्रित अनेक फिल्में और टीवी धारावाहिक मेरे मन की टीस को और ज्यादा बढ़ा देते हैं!

अब जब यह पीड़ा असहनीय हो गई तो एक दिन इस प्रसंग में इतिहास जानने की जिज्ञासा हुई तो पास के पुस्तकालय से अकबर के दरबारी 'अबुल फजल' द्वारा लिखित 'अकबरनामा' निकाल कर पढ़ने के लिए ले आया!

उत्सुकतावश उसे एक ही बैठक में पूरा पढ़ डाला पूरी किताब पढ़ने के बाद घोर आश्चर्य तब हुआ जब पूरी पुस्तक में जोधाबाई का कहीं कोई उल्लेख ही नही मिला!

मेरी आश्चर्य मिश्रित जिज्ञासा को भांपते हुए मेरे मित्र ने एक अन्य ऐतिहासिक ग्रंथ 'तुजुक-ए-जहांगिरी' जो जहांगीर की आत्मकथा है उसे दिया!

इसमें भी आश्चर्यजनक रूप से जहांगीर ने अपनी मां जोधाबाई का एक भी बार जिक्र नही किया!

हां कुछ स्थानों पर हीर कुँवर और हरका बाई का जिक्र जरूर था!

अब जोधाबाई के बारे में सभी एतिहासिक दावे झूठे समझ आ रहे थे कुछ और पुस्तकों और इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी के पश्चात हकीकत सामने आयी कि “जोधा बाई” का पूरे इतिहास में कहीं कोई जिक्र या नाम नहीं है!

इस खोजबीन में एक नई बात सामने आई जो बहुत चौकानें वाली है!

ईतिहास में दर्ज कुछ तथ्यों के आधार पर पता चला कि आमेर के राजा भारमल को दहेज में 'रुकमा' नाम की एक पर्सियन दासी भेंट की गई थी जिसकी एक छोटी पुत्री भी थी!

रुकमा की बेटी होने के कारण उस लड़की को 'रुकमा-बिट्टी' नाम से बुलाते थे आमेर की महारानी ने रुकमा बिट्टी को 'हीर कुँवर' नाम दिया चूँकि हीर कुँवर का लालन पालन राजपूताना में हुआ इसलिए वह राजपूतों के रीति-रिवाजों से भली भांति परिचित थी!

राजा भारमल उसे कभी हीर कुँवरनी तो कभी हरका कह कर बुलाते थे!

राजा भारमल ने अकबर को बेवकूफ बनाकर अपनी परसियन दासी रुकमा की पुत्री हीर कुँवर का विवाह अकबर से करा दिया जिसे बाद में अकबर ने मरियम-उज-जमानी नाम दिया!

चूँकि राजा भारमल ने उसका कन्यादान किया था इसलिये ऐतिहासिक ग्रंथो में हीर कुँवरनी को राजा भारमल की पुत्री बता दिया!

जबकि वास्तव में वह कच्छवाह राजकुमारी नही बल्कि दासी-पुत्री थी!

राजा भारमल ने यह विवाह एक समझौते की तरह या राजपूती भाषा में कहें तो हल्दी-चन्दन किया था!

इस विवाह के विषय मे अरब में बहुत सी किताबों में लिखा है!

(“ونحن في شك حول أكبر أو جعل الزواج راجبوت الأميرة في هندوستان آرياس كذبة لمجلس”) हम यकीन नहीं करते इस निकाह पर हमें संदेह
इसी तरह ईरान के मल्लिक नेशनल संग्रहालय एन्ड लाइब्रेरी में रखी किताबों में एक भारतीय मुगल शासक का विवाह एक परसियन दासी की पुत्री से करवाए जाने की बात लिखी है!

'अकबर-ए-महुरियत' में यह साफ-साफ लिखा है कि (ہم راجپوت شہزادی یا اکبر کے بارے میں شک میں ہیں) हमें इस हिन्दू निकाह पर संदेह है क्योंकि निकाह के वक्त राजभवन में किसी की आखों में आँसू नही थे और ना ही हिन्दू गोद भरई की रस्म हुई थी!

सिक्ख धर्म गुरू अर्जुन और गुरू गोविन्द सिंह ने इस विवाह के विषय मे कहा था कि क्षत्रियों ने अब तलवारों और बुद्धि दोनो का इस्तेमाल करना सीख लिया है, मतलब राजपुताना अब तलवारों के साथ-साथ बुद्धि का भी काम लेने लगा है!

17वी सदी में जब 'परसी' भारत भ्रमण के लिये आये तब उन्होंने अपनी रचना ”परसी तित्ता” में लिखा “यह भारतीय राजा एक परसियन वैश्या को सही हरम में भेज रहा है अत: हमारे देव(अहुरा मझदा) इस राजा को स्वर्ग दें"!

भारतीय राजाओं के दरबारों में राव और भाटों का विशेष स्थान होता था वे राजा के इतिहास को लिखते थे और विरदावली गाते थे उन्होंने साफ साफ लिखा है-

”गढ़ आमेर आयी तुरकान फौज ले ग्याली पसवान कुमारी ,राण राज्या राजपूता ले ली इतिहासा पहली बार ले बिन लड़िया जीत!
(1563 AD)

मतलब आमेर किले में मुगल फौज आती है और एक दासी की पुत्री को ब्याह कर ले जाती है!

हे रण के लिये पैदा हुए राजपूतों तुमने इतिहास में ले ली बिना लड़े पहली जीत 1563 AD!

ये ऐसे कुछ तथ्य हैं जिनसे एक बात समझ आती है कि किसी ने जानबूझकर गौरवशाली क्षत्रिय समाज को नीचा दिखाने के उद्देश्य से ऐतिहासिक तथ्यों से छेड़छाड़ की और यह कुप्रयास अभी भी जारी है।
लेकिन अब यह षणयंत्र अधिक दिन नही चलेगा ।।    

शनिवार, 30 मई 2020

तैमूर लँगड़े को भारत से बाहर खदेड़ने वाली वीरांगना रामप्यारी गुर्जर की कहानी

तैमूर लँगड़े को भारत से बाहर खदेड़ने वाली वीरांगना रामप्यारी गुर्जर की कहानी

तैमूर लंग की 120000 की सेना देखते ही देखते ढेर हो गई और उसे जान बचाकर भागना पड़ा

हमारे वामपंथी इतिहासकार हमें बताते आए हैं कि कैसे तैमूर लंग और उसकी क्रूर सेना ने दिल्ली को क्षत विक्षत करते हुए लाखों हिन्दू वीरों को मृत्युलोक भेजा था। यही इतिहासकार बड़े चाव से बताते हैं कि कैसे तैमूर भारत से अथाह संपत्ति लूटकर भारत में अपना सारा साम्राज्य खिज्र खान सैयद के हाथों छोडकर अपने आगे के अभियानों को आगे बढ़ाने हेतु निकाल पड़ा था। पर क्या यही सत्य है? क्या उस कालखंड में कुछ और घटित नहीं हुआ था इस देश मे? यह अर्धसत्य है।

आज उस वीरांगना की कथा में हम आपको बताएंगे जिसे वामपंथी इतिहासकारों ने हमसे वर्षों तक छुपाए रखा। सैफ्रन स्वोर्ड्स (Saffron Swords: Centuries of Indic Resistance to Invaders) जिसकी लेखिका हैं मनोशी सिंह रावल, इसमें 51 ऐसे हिन्दू वीरों की कथाएँ हैं जिन्होंने इस्लामिक आताताईयों और ब्रिटिश लूटेरों के अजेयता के दंभ को धूल धूसरित किया था। आज की कथा इसी पुस्तक के पहले अध्याय से ली गयी है और ये कथा है तैमूर को अपना भारत अभियान अपूर्ण छोड़ पलायन करने हेतु विवश करने वाली वीरांगना रामप्यारी गुर्जर की।

रामप्यारी गुर्जर का जन्म सहारनपुर के एक गुर्जर परिवार में हुआ था। वीरता बाल्यकाल से ही रामप्यारी गुर्जर के अंदर नैसर्गिक रूप से भरी थी। निर्भय और हठी स्वभाव की, रामप्यारी गुर्जर अपनी मां से नित्य ही पहलवान बनने हेतु आवश्यक नियम जिज्ञासा पूर्वक पूछा करती थी और फिर प्रात: काल हो या संध्याकाल, वे नियमित रूप से किसी एकान्त स्थान में व्यायाम किया करती थी।

जैसे अग्नि में तपकर सुवर्ण की चमक और निखरती है, वैसे ही रामप्यारी गुर्जर भी नियमित व्यायाम, अथक परिश्रम और अनुशासित जीवन शैली से अत्यंत शक्तिशाली योद्धा बन कर उभरीं। रामप्यारी सदैव पुरुषों के सदृश वस्त्र पहनती थी और अपने ग्राम और पड़ोसी ग्रामों में पहलवानों के कौशल देखने अपने पिता और भाई के साथ जाती थी| रामप्यारी की योग्यता, शक्ति एवं कौशल की प्रसिद्धि शनैः शनैः आस पड़ोस के सभी ग्रामों में फैलने लगी।

लेकिन हर योद्धा को एक अग्निपरीक्षा से गुजरना पड़ता था, और रामप्यारी गुर्जर हेतु भी शीघ्र ही ऐसा समय आया। वर्ष था 1398। उस समय भारतवर्ष पर तुग़लक वंश का शासन हुआ करता था, परंतु ये शासन नाममात्र का था, क्योंकि उसका आधिपत्य कोई भी राजा स्वीकारने को तैयार नहीं था।

इसी समय आगमन हुआ समरकन्द के क्रूर आक्रांता अमीर तैमूर का, जिसे कुछ केवल तैमूर, तो कुछ तैमूर लंग या तैमूर लँगड़े के नाम से भी जानते थे। तैमूर के खड्ग और उसके युद्ध कौशल के आगे नसीरुद्दीन तुग़लक निरीह व दुर्बल सिद्ध हुआ और और उसकी सेना पराजित हुई। नसीरुद्दीन तुग़लक को परास्त करने के पश्चात तैमूर ने दिल्ली में मौत का मानो एक खूनी उत्सव सा मनाया, जिसका उल्लेख करते हुये आज भी कई लोगों की आत्माएँ कंपायमान हो उठती है।

दिल्ली को क्षत विक्षत करने के उपरांत तैमूर ने अपनी क्रूर दृष्टि हिंदुओं और उनके तीर्थों की ओर घुमाई। ब्रिटिश इतिहासकार विन्सेंट ए स्मिथ द्वारा रचित पुस्तक ‘द ऑक्सफोर्ड हिस्ट्री ऑफ इंडिया : फ्रोम द अर्लीएस्ट टाइम्स टू द एण्ड ऑफ 1911’ की माने तो भारत में तैमूर के अभियान का मुख्य उद्देश्य था: सनातन समुदाय का विनाश कर भारत में इस्लाम की ध्वजा लहराना । जब तुग़लक वंश को धाराशायी करने के पश्चात तैमूर ने दिल्ली पर आक्रमण किया था, तो उसने उन क्षेत्रों को छोड़ दिया, जहां मुसलमानों की आबादी ज़्यादा था, और उसने केवल सनातन समुदाय पर निशाना साधा। जाने कितने लोग तैमूर की इस हूहभरी अग्नि में भस्म हुए, जो बचे वो दास बना दिये गए।

यह सूचना जाट क्षेत्र में पहुंची, जाट क्षेत्र मे आज का हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ भाग आते हैं। जाट क्षेत्र के तत्कालीन प्रमुख देवपाल ने महापंचायत का आयोजन किया। इस महापंचायत में जाट, गुर्जर, अहीर, वाल्मीकि, राजपूत, ब्राह्मण एवं आदिवासी जैसे अनेक समुदायों के सदस्य शामिल थे। महापंचायत में देवपाल ने न केवल तैमूर के अत्याचारों को सबके समक्ष उजागर किया, अपितु वहाँ उपस्थित सभी समुदायों से यह निवेदन किया कि वे अपने सभी मतभेद भुलाकर एक हों, और तैमूर को उसी की भाषा में जवाब कर न केवल सनातन समुदाय की रक्षा करें, वरन समूचे भारतवर्ष के लिए एक अनुपम उदाहरण पेश करें।

अंतत : सभी समुदायों की सहमति से महापंचायत ने तैमूर की सेना से छापामार युद्ध लड़ने की रणनीति बनायीं। इसहेतु महापंचायत ने सर्व समाज की एक सेना तैयार की, जिसमें इस महापंचायत सेना के ध्वज के अंतर्गत 80,000 योद्धा शामिल हुए थे। इन्हें समर्थन देने हेतु 40000 अतिरिक्त सैनिकों की टुकड़ी तैयार की गई, जिसमें सभी महिला सदस्य थी, और उनकी सेनापति नियुक्त हुई रामप्यारी गुर्जर। वहीं मुख्य सेना के प्रमुख थे महाबली जोगराज सिंह गुर्जर और उनके सेनापति थे वीर योद्धा हरवीर सिंह गुलिया।

एक सुनियोजित योजना के अंतर्गत 500 युवा अश्वारोहियों को तैमूर की सेना पर जासूसी हेतु लगाया गया, जिससे उसकी योजनाओं और भविष्य के आक्रमणों के बारे में पता चल सके। यदि तैमूर एक स्थान पर हमला करने की योजना बनाता, तो उससे पहले ही रुग्ण, वृद्धजनों और शिशुओं को सुरक्षित स्थानों पर सभी मूल्यवान वस्तुओं सहित स्थानांतरित कर दिया जाता।

वीर रामप्यारी गुर्जर ने देशरक्षा हेतु शत्रु से लड़कर प्राण देने की प्रतिज्ञा की। जोगराज के नेतृत्व में बनी 40000 ग्रामीण महिलाओं की सेना को युद्ध विद्या के प्रशिक्षण व् निरीक्षण का दायित्व भी रामप्यारी चौहान गुर्जर के पास था, इनकी चार सहकर्मियों भी थी, जिनके नाम थे हरदाई जाट, देवी कौर राजपूत, चंद्रों ब्राह्मण और रामदाई त्यागी। इन 40000 महिलाओं में गुर्जर, जाट, अहीर, राजपूत, हरिजन, वाल्मीकि, त्यागी, तथा अन्य वीर जातियों की वीरांगनाएं शामिल थी। यूं तो इनमें से कई ऐसी महिलाए भी थी, जिनहोने कभी शस्त्र का मुंह भी नहीं देखा था परंतु रामप्यारी के हुंकार पर वह अपने को रोक ना पायी। अपनी मातृभूमि और अपने संस्कृति की रक्षा हेतु देवी दुर्गा की संस्कृति से संबंध रखने वाली इन दुर्गाओं ने शस्त्र चलाने में तनिक भी संकोच नहीं किया।

प्रत्येक गांव के युवक-युवतियां अपने नेता के संरक्षण में प्रतिदिन शाम को गांव के अखाड़े पर एकत्र हो जाया करते थे और व्यायाम, मल्ल युद्ध तथा युद्ध विद्या का अभ्यास किया करते थे। उत्सवों के समय वीर युवक युवतियाँ अपने कौशल सार्वजनिक तौर पर प्रदर्शित किया करते थे।

अंतत: धर्मयुद्ध का दिन समीप आया। गुप्तचरों की सूचना के अनुसार तैमूर लंग अपनी विशाल सेना के साथ मेरठ की ओर कूच कर रहा था। सभी 120000 सैनिक केवल महाबली जोगराज सिंह गुर्जर के युद्ध आवाहन की प्रतीक्षा कर रहे थे।

सिंह के सदृश गरजते हुये महाबली जोगराज सिंह गुर्जर ने कहा, “वीरों, भगवद गीता में जो भगवान कृष्ण ने अर्जुन को कहा था, उसका स्मरण करो। जो मोक्ष हमारे ऋषि मुनि योग साधना करके प्राप्त करते हैं, वो हम योद्धा यहाँ इस रणभूमि पर लड़कर प्राप्त करेंगे। यदि मातृभूमि की रक्षा करते करते आप वीरगति को प्राप्त हुये, तब भी सारा संसार आपकी वंदना करेगा।

आपने मुझे अपना प्रमुख चुना है, और इसलिए मैं अंतिम श्वास तक युद्धभूमि से पीछे नहीं हटूँगा। अपनी अंतिम श्वास और रक्त के अंतिम बूंद तक मैं माँ भारती की रक्षा करूंगा। हमारे राष्ट्र को तैमूर के अत्याचारों ने लहूलुहान किया है। योद्धाओं, उठो और क्षण भर भी विलंब न करो। शत्रुओं से युद्ध करो और उन्हे हमारी मातृभूमि से बाहर खदेड़ दो”।

महाबली जोगराज सिंह गुर्जर की इस हुंकार पर रामप्यारी गुर्जर ने अपने खड्ग को चूमा, और उनके साथ समस्त महिला सैनिकों ने अपने शस्त्रों को चूमते हुये युद्ध का उदघोष किया। रणभेरी बज उठी और शंख गूंज उठे। सभी योद्धाओं ने शपथ ली की वे किसी भी स्थिति में अपने सैन्य प्रमुख की आज्ञाओं की अवहेलना नहीं करेंगे, और वे तब तक नहीं बैठेंगे जब तक तैमूर और उसकी सेना को भारत भूमि से बाहर नहीं खदेड़ देते।

युद्ध में कम से कम योद्धा हताहत हों , इसलिए महापंचायत ने छापामार युद्ध की रणनीति अपनाई। रामप्यारी गुर्जर ने अपनी सेना की तीन टुकड़ियाँ बनाई। जहां एक ओर कुछ महिलाओं पर सैनिकों के लिए भोजन और शिविर की व्यवस्था करने का दायित्व था, तो वहीं कुछ महिलाओं ने युद्धभूमि में लड़ रहे योद्धाओं को आवश्यक शस्त्र और राशन का बीड़ा उठाया। इसके अलावा रामप्यारी गुर्जर ने महिलाओं की एक और टुकड़ी को शत्रु सेना के राशन पर धावा बोलने का निर्देश दिया, जिससे शत्रु के पास न केवल खाने की कमी होगी, अपितु धीरे धीरे उनका मनोबल भी टूटने लगे, उसी टुकड़ी के पास विश्राम करने को आए शत्रुओं पर धावा बोलने का भी भार था।

20000 महापंचायत योद्धाओं ने उस समय तैमूर की सेना पर हमला किया, जब वह दिल्ली से मेरठ हेतु निकलने ही वाला था, 9000 से ज़्यादा शत्रुओं को रात मे ही कुंभीपाक पहुंचा दिया गया। इससे पहले कि तैमूर की सेना एकत्रित हो पाती, सूर्योदय होते ही महापंचायत के योद्धा मानो अदृश्य हो गए।

क्रोध में विक्षिप्त सा हुआ तैमूर मेरठ की ओर निकल पड़े, परंतु यहाँ भी उसे निराशा ही हाथ लगी। जिस रास्ते से तैमूर मेरठ पर आक्रमण करने वाला था, वो पूरा मार्ग और उस पर स्थित सभी गाँव निर्जन पड़े थे। इससे तैमूर की सेना अधीर होने लगी, और इससे पहले वह कुछ समझ पाता, महापंचायत के योद्धाओं ने अनायास ही उनपर आक्रमण कर दिया। महापंचायत की इस वीर सेना ने शत्रुओं को संभलने का एक अवसर भी नहीं दिया। और रणनीति भी ऐसी थी कि तैमूर कुछ कर ही ना सका, दिन मे महाबली जोगराज सिंह गुर्जर के लड़ाके उसकी सेना पर आक्रमण कर देते, और यदि वे रात को कुछ क्षण विश्राम करने हेतु अपने शिविर जाते, तो रामप्यारी गुर्जर और अन्य वीरांगनाएँ उनके शिविरों पर आक्रमण कर देती। रामप्यारी की सेना का आक्रमण इतना सटीक और त्वरित होता था कि वे गाजर मूली की तरह काटे जाते थे और जो बचते थे वो रात रात भर ना सोने का कारण विक्षिप्त से हो जाते थे। महिलाओं के इस आक्रमण से तैमूर की सेना के अंदर युद्ध का मानो उत्साह ही क्षीण हो गया था।

अर्धविक्षिप्त, थके हारे और घायल सेना के साथ आखिरकार हताश होकर तैमूर और उसकी सेना मेरठ से हरिद्वार की ओर निकाल पड़ी। पर यहाँ तो मानो रुद्र के गण उनकी स्वयं प्रतीक्षा कर रहे थे। महापंचायत की सेना ने उनपर पुनः आनायास ही उनपर धावा बोल दिया, और इस बार तैमूर की सेना को मैदान छोड़कर भागने पर विवश होना पड़ा। इसी युद्ध में वीर हरवीर सिंह गुलिया ने सभी को चौंकाते हुये सीधा तैमूर पर धावा बोल दिया और अपने भाले से उसकी छाती छेद दी।

तैमूर के अंगरक्षक तुरंत हरवीर पर टूट पड़े, परंतु हरवीर तब तक अपना काम कर चुके थे। जहां हरवीर उस युद्धभूमि में ही वीरगति को प्राप्त हुये, तो तैमूर उस घाव से कभी नहीं उबर पाया, और अंततः सन 1405 में उसी घाव में बढ़ते संक्रमण के कारण उसकी मृत्यु हो गयी। जो आखिर तैमूर कुते की मोत मरा तैमूर लाखों की सेना के साथ भारत विजय के उद्देश्य से यहाँ आया था, वो महज कुछ हज़ार सैनिकों के साथ किसी तरह भारत से भाग पाया। रोचक बात तो यह है कि ईरानी इतिहासकार शरीफुद्दीन अली यजीदी द्वारा रचित ‘जफरनमा’ में इस युद्ध का उल्लेख भी किया गया है।

यह युद्ध कोई आम युद्ध नहीं था, अपितु अपने सम्मान, अपने संस्कृति की रक्षा हेतु किया गया एक धर्मयुद्ध था, जिसमें जाति , धर्म सबको पीछे छोडते हुये हमारे वीर योद्धाओं ने एक क्रूर आक्रांता को उसी की शैली में सबक सिखाया। पर इसे हमारी विडम्बना ही कहेंगे, कि इस युद्ध के किसी भी नायक का गुणगान तो बहुत दूर की बात, हमारे देशवासियों को इस ऐतिहासिक युद्ध के बारे में लेशमात्र भी ज्ञान नहीं होगा। रामप्यारी गुर्जर जैसी अनेकों वीर महिलाओं ने जिस तरह तैमूर को नाकों चने चबवाने पर विवश किया, वो अपने आप में असंख्य भारतीय महिलाओं हेतु किसी प्रेरणास्त्रोत से कम नहीं होगा।

ये कथा है अधर्म पर धर्म केए विजय की, ये कथा है देवी दुर्गा के संस्कृति की अनेक दुर्गाओं की, ये कथा है तैमूर लँगड़े की सेना की हमारे वीर वीरांगनाओं के हाथों अप्रत्याशित पराजय की।

गुरुवार, 13 अगस्त 2015

वीर शिरोमणि दुर्गा दास राठौड़

जिसने इस देश का पूर्ण इस्लामीकरण करने की औरंगजेब की साजिश को विफल कर हिन्दू धर्म की रक्षा की थी…..उस महान यौद्धा का नाम है वीर दुर्गादास राठौर…

समय – सोहलवीं – सतरवी शताब्दी
चित्र – वीर शिरोमणि दुर्गा दस राठौड़
स्थान – मारवाड़ राज्य

वीर दुर्गादास राठौड का जन्म मारवाड़ में करनोत ठाकुर आसकरण जी के घर सं. 1695 श्रावन शुक्ला चतुर्दसी को हुआ था। आसकरण जी मारवाड़ राज्य की सेना में जोधपुर नरेश महाराजा जसवंत सिंह जी की सेवा में थे ।अपने पिता की भांति बालक दुर्गादास में भी वीरता कूट कूट कर भरी थी,एक बार जोधपुर राज्य की सेना के ऊंटों को चराते हुए राईके (ऊंटों के चरवाहे) आसकरण जी के खेतों में घुस गए, बालक दुर्गादास के विरोध करने पर भी चरवाहों ने कोई ध्यान नहीं दिया तो वीर युवा दुर्गादास का खून खोल उठा और तलवार निकाल कर झट से ऊंट की गर्दन उड़ा दी,इसकी खबर जब महाराज जसवंत सिंह जी के पास पहुंची तो वे उस वीर बालक को देखने के लिए उतावले हो उठे व अपने सेनिकों को दुर्गादास को लेन का हुक्म दिया ।अपने दरबार में महाराज उस वीर बालक की निडरता व निर्भीकता देख अचंभित रह गए,आस्करण जी ने अपने पुत्र को इतना बड़ा अपराध निर्भीकता से स्वीकारते देखा तो वे सकपका गए। परिचय पूछने पर महाराज को मालूम हुवा की यह आस्करण जी का पुत्र है,तो महाराज ने दुर्गादास को अपने पास बुला कर पीठ थपथपाई और इनाम तलवार भेंट कर अपनी सेना में भर्ती कर लिया।

उस समय महाराजा जसवंत सिंह जी दिल्ली के मुग़ल बादशाह औरंगजेब की सेना में प्रधान सेनापति थे,फिर भी औरंगजेब की नियत जोधपुर राज्य के लिए अच्छी नहीं थी और वह हमेशा जोधपुर हड़पने के लिए मौके की तलाश में रहता था ।सं. 1731 में गुजरात में मुग़ल सल्तनत के खिलाफ विद्रोह को दबाने हेतु जसवंत सिंह जी को भेजा गया,इस विद्रोह को दबाने के बाद महाराजा जसवंत सिंह जी काबुल में पठानों के विद्रोह को दबाने हेतु चल दिए और दुर्गादास की सहायता से पठानों का विद्रोह शांत करने के साथ ही वीर गति को प्राप्त हो गए । उस समय उनके कोई पुत्र नहीं था और उनकी दोनों रानियाँ गर्भवती थी,दोनों ने एक एक पुत्र को जनम दिया,एक पुत्र की रास्ते में ही मौत हो गयी और दुसरे पुत्र अजित सिंह को रास्ते का कांटा समझ कर ओरंग्जेब ने अजित सिंह की हत्या की ठान ली,ओरंग्जेब की इस कुनियत को स्वामी भक्त दुर्गादास ने भांप लिया और मुकंदास की सहायता से स्वांग रचाकर अजित सिंह को दिल्ली से निकाल लाये व अजित सिंह की लालन पालन की समुचित व्यवस्था करने के साथ जोधपुर में गदी के लिए होने वाले ओरंग्जेब संचालित षड्यंत्रों के खिलाफ लोहा लेते अपने कर्तव्य पथ पर बदते रहे।

अजित सिंह के बड़े होने के बाद गद्दी पर बैठाने तक वीर दुर्गादास को जोधपुर राज्य की एकता व स्वतंत्रता के लिए दर दर की ठोकरें खानी पड़ी,ओरंग्जेब का बल व लालच दुर्गादास को नहीं डिगा सका जोधपुर की आजादी के लिए दुर्गादास ने कोई पच्चीस सालों तक सघर्ष किया,लेकिन जीवन के अन्तिम दिनों में दुर्गादास को मारवाड़ छोड़ना पड़ा । महाराज अजित सिंह के कुछ लोगों ने दुर्गादास के खिलाफ कान भर दिए थे जिससे महाराज दुर्गादास से अनमने रहने लगे वस्तु स्तिथि को भांप कर दुर्गादास ने मारवाड़ राज्य छोड़ना ही उचित समझा ।और वे मारवाड़ छोड़ कर उज्जेन चले गए वही शिप्रा नदी के किनारे उन्होने अपने जीवन के अन्तिम दिन गुजारे व वहीं उनका स्वर्गवास हुवा ।दुर्गादास हमारी आने वाली पिडियों के लिए वीरता, देशप्रेम, बलिदान व स्वामिभक्ति के प्रेरणा व आदर्श बने रहेंगे ।

१-मायाड ऐडा पुत जाण, जेड़ा दुर्गादास । भार मुंडासा धामियो, बिन थम्ब आकाश ।
२-घर घोड़ों, खग कामनी, हियो हाथ निज मीत सेलां बाटी सेकणी, श्याम धरम रण नीत ।
वीर दुर्गादास का निधन 22 नवम्बर, सन् 1718 में हुवा था इनका अन्तिम संस्कार शिप्रा नदी के तट पर किया गया था ।
“उनको न मुगलों का धन विचलित कर सका और न ही मुग़ल शक्ति उनके दृढ हृदये को पीछे हटा सकी। वह एक वीर था जिसमे राजपूती साहस व मुग़ल मंत्री सी कूटनीति थी ”

जिसने इस देश का पूर्ण इस्लामीकरण करने की औरंगजेब की साजिश को विफल कर हिन्दू धर्म की रक्षा की थी…..उस महान यौद्धा का नाम है वीर दुर्गादास राठौर…
इसी वीर दुर्गादास राठौर के बारे में रामा जाट ने कहा था कि “धम्मक धम्मक ढोल बाजे दे दे ठोर नगारां की,, जो आसे के घर दुर्गा नहीं होतो,सुन्नत हो जाती सारां की…….
आज भी मारवाड़ के गाँवों में लोग वीर दुर्गादास को याद करते है कि
“माई ऐहा पूत जण जेहा दुर्गादास, बांध मरुधरा राखियो बिन खंभा आकाश”
हिंदुत्व की रक्षा के लिए उनका स्वयं का कथन
“रुक बल एण हिन्दू धर्म राखियों”
अर्थात हिन्दू धर्म की रक्षा मैंने भाले की नोक से की…………
इनके बारे में कहा जाता है कि इन्होने सारी उम्र घोड़े की पीठ पर