तैमूर लँगड़े को भारत से बाहर खदेड़ने वाली वीरांगना रामप्यारी गुर्जर की कहानी
तैमूर लंग की 120000 की सेना देखते ही देखते ढेर हो गई और उसे जान बचाकर भागना पड़ा
हमारे वामपंथी इतिहासकार हमें बताते आए हैं कि कैसे तैमूर लंग और उसकी क्रूर सेना ने दिल्ली को क्षत विक्षत करते हुए लाखों हिन्दू वीरों को मृत्युलोक भेजा था। यही इतिहासकार बड़े चाव से बताते हैं कि कैसे तैमूर भारत से अथाह संपत्ति लूटकर भारत में अपना सारा साम्राज्य खिज्र खान सैयद के हाथों छोडकर अपने आगे के अभियानों को आगे बढ़ाने हेतु निकाल पड़ा था। पर क्या यही सत्य है? क्या उस कालखंड में कुछ और घटित नहीं हुआ था इस देश मे? यह अर्धसत्य है।
आज उस वीरांगना की कथा में हम आपको बताएंगे जिसे वामपंथी इतिहासकारों ने हमसे वर्षों तक छुपाए रखा। सैफ्रन स्वोर्ड्स (Saffron Swords: Centuries of Indic Resistance to Invaders) जिसकी लेखिका हैं मनोशी सिंह रावल, इसमें 51 ऐसे हिन्दू वीरों की कथाएँ हैं जिन्होंने इस्लामिक आताताईयों और ब्रिटिश लूटेरों के अजेयता के दंभ को धूल धूसरित किया था। आज की कथा इसी पुस्तक के पहले अध्याय से ली गयी है और ये कथा है तैमूर को अपना भारत अभियान अपूर्ण छोड़ पलायन करने हेतु विवश करने वाली वीरांगना रामप्यारी गुर्जर की।
रामप्यारी गुर्जर का जन्म सहारनपुर के एक गुर्जर परिवार में हुआ था। वीरता बाल्यकाल से ही रामप्यारी गुर्जर के अंदर नैसर्गिक रूप से भरी थी। निर्भय और हठी स्वभाव की, रामप्यारी गुर्जर अपनी मां से नित्य ही पहलवान बनने हेतु आवश्यक नियम जिज्ञासा पूर्वक पूछा करती थी और फिर प्रात: काल हो या संध्याकाल, वे नियमित रूप से किसी एकान्त स्थान में व्यायाम किया करती थी।
जैसे अग्नि में तपकर सुवर्ण की चमक और निखरती है, वैसे ही रामप्यारी गुर्जर भी नियमित व्यायाम, अथक परिश्रम और अनुशासित जीवन शैली से अत्यंत शक्तिशाली योद्धा बन कर उभरीं। रामप्यारी सदैव पुरुषों के सदृश वस्त्र पहनती थी और अपने ग्राम और पड़ोसी ग्रामों में पहलवानों के कौशल देखने अपने पिता और भाई के साथ जाती थी| रामप्यारी की योग्यता, शक्ति एवं कौशल की प्रसिद्धि शनैः शनैः आस पड़ोस के सभी ग्रामों में फैलने लगी।
लेकिन हर योद्धा को एक अग्निपरीक्षा से गुजरना पड़ता था, और रामप्यारी गुर्जर हेतु भी शीघ्र ही ऐसा समय आया। वर्ष था 1398। उस समय भारतवर्ष पर तुग़लक वंश का शासन हुआ करता था, परंतु ये शासन नाममात्र का था, क्योंकि उसका आधिपत्य कोई भी राजा स्वीकारने को तैयार नहीं था।
इसी समय आगमन हुआ समरकन्द के क्रूर आक्रांता अमीर तैमूर का, जिसे कुछ केवल तैमूर, तो कुछ तैमूर लंग या तैमूर लँगड़े के नाम से भी जानते थे। तैमूर के खड्ग और उसके युद्ध कौशल के आगे नसीरुद्दीन तुग़लक निरीह व दुर्बल सिद्ध हुआ और और उसकी सेना पराजित हुई। नसीरुद्दीन तुग़लक को परास्त करने के पश्चात तैमूर ने दिल्ली में मौत का मानो एक खूनी उत्सव सा मनाया, जिसका उल्लेख करते हुये आज भी कई लोगों की आत्माएँ कंपायमान हो उठती है।
दिल्ली को क्षत विक्षत करने के उपरांत तैमूर ने अपनी क्रूर दृष्टि हिंदुओं और उनके तीर्थों की ओर घुमाई। ब्रिटिश इतिहासकार विन्सेंट ए स्मिथ द्वारा रचित पुस्तक ‘द ऑक्सफोर्ड हिस्ट्री ऑफ इंडिया : फ्रोम द अर्लीएस्ट टाइम्स टू द एण्ड ऑफ 1911’ की माने तो भारत में तैमूर के अभियान का मुख्य उद्देश्य था: सनातन समुदाय का विनाश कर भारत में इस्लाम की ध्वजा लहराना । जब तुग़लक वंश को धाराशायी करने के पश्चात तैमूर ने दिल्ली पर आक्रमण किया था, तो उसने उन क्षेत्रों को छोड़ दिया, जहां मुसलमानों की आबादी ज़्यादा था, और उसने केवल सनातन समुदाय पर निशाना साधा। जाने कितने लोग तैमूर की इस हूहभरी अग्नि में भस्म हुए, जो बचे वो दास बना दिये गए।
यह सूचना जाट क्षेत्र में पहुंची, जाट क्षेत्र मे आज का हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ भाग आते हैं। जाट क्षेत्र के तत्कालीन प्रमुख देवपाल ने महापंचायत का आयोजन किया। इस महापंचायत में जाट, गुर्जर, अहीर, वाल्मीकि, राजपूत, ब्राह्मण एवं आदिवासी जैसे अनेक समुदायों के सदस्य शामिल थे। महापंचायत में देवपाल ने न केवल तैमूर के अत्याचारों को सबके समक्ष उजागर किया, अपितु वहाँ उपस्थित सभी समुदायों से यह निवेदन किया कि वे अपने सभी मतभेद भुलाकर एक हों, और तैमूर को उसी की भाषा में जवाब कर न केवल सनातन समुदाय की रक्षा करें, वरन समूचे भारतवर्ष के लिए एक अनुपम उदाहरण पेश करें।
अंतत : सभी समुदायों की सहमति से महापंचायत ने तैमूर की सेना से छापामार युद्ध लड़ने की रणनीति बनायीं। इसहेतु महापंचायत ने सर्व समाज की एक सेना तैयार की, जिसमें इस महापंचायत सेना के ध्वज के अंतर्गत 80,000 योद्धा शामिल हुए थे। इन्हें समर्थन देने हेतु 40000 अतिरिक्त सैनिकों की टुकड़ी तैयार की गई, जिसमें सभी महिला सदस्य थी, और उनकी सेनापति नियुक्त हुई रामप्यारी गुर्जर। वहीं मुख्य सेना के प्रमुख थे महाबली जोगराज सिंह गुर्जर और उनके सेनापति थे वीर योद्धा हरवीर सिंह गुलिया।
एक सुनियोजित योजना के अंतर्गत 500 युवा अश्वारोहियों को तैमूर की सेना पर जासूसी हेतु लगाया गया, जिससे उसकी योजनाओं और भविष्य के आक्रमणों के बारे में पता चल सके। यदि तैमूर एक स्थान पर हमला करने की योजना बनाता, तो उससे पहले ही रुग्ण, वृद्धजनों और शिशुओं को सुरक्षित स्थानों पर सभी मूल्यवान वस्तुओं सहित स्थानांतरित कर दिया जाता।
वीर रामप्यारी गुर्जर ने देशरक्षा हेतु शत्रु से लड़कर प्राण देने की प्रतिज्ञा की। जोगराज के नेतृत्व में बनी 40000 ग्रामीण महिलाओं की सेना को युद्ध विद्या के प्रशिक्षण व् निरीक्षण का दायित्व भी रामप्यारी चौहान गुर्जर के पास था, इनकी चार सहकर्मियों भी थी, जिनके नाम थे हरदाई जाट, देवी कौर राजपूत, चंद्रों ब्राह्मण और रामदाई त्यागी। इन 40000 महिलाओं में गुर्जर, जाट, अहीर, राजपूत, हरिजन, वाल्मीकि, त्यागी, तथा अन्य वीर जातियों की वीरांगनाएं शामिल थी। यूं तो इनमें से कई ऐसी महिलाए भी थी, जिनहोने कभी शस्त्र का मुंह भी नहीं देखा था परंतु रामप्यारी के हुंकार पर वह अपने को रोक ना पायी। अपनी मातृभूमि और अपने संस्कृति की रक्षा हेतु देवी दुर्गा की संस्कृति से संबंध रखने वाली इन दुर्गाओं ने शस्त्र चलाने में तनिक भी संकोच नहीं किया।
प्रत्येक गांव के युवक-युवतियां अपने नेता के संरक्षण में प्रतिदिन शाम को गांव के अखाड़े पर एकत्र हो जाया करते थे और व्यायाम, मल्ल युद्ध तथा युद्ध विद्या का अभ्यास किया करते थे। उत्सवों के समय वीर युवक युवतियाँ अपने कौशल सार्वजनिक तौर पर प्रदर्शित किया करते थे।
अंतत: धर्मयुद्ध का दिन समीप आया। गुप्तचरों की सूचना के अनुसार तैमूर लंग अपनी विशाल सेना के साथ मेरठ की ओर कूच कर रहा था। सभी 120000 सैनिक केवल महाबली जोगराज सिंह गुर्जर के युद्ध आवाहन की प्रतीक्षा कर रहे थे।
सिंह के सदृश गरजते हुये महाबली जोगराज सिंह गुर्जर ने कहा, “वीरों, भगवद गीता में जो भगवान कृष्ण ने अर्जुन को कहा था, उसका स्मरण करो। जो मोक्ष हमारे ऋषि मुनि योग साधना करके प्राप्त करते हैं, वो हम योद्धा यहाँ इस रणभूमि पर लड़कर प्राप्त करेंगे। यदि मातृभूमि की रक्षा करते करते आप वीरगति को प्राप्त हुये, तब भी सारा संसार आपकी वंदना करेगा।
आपने मुझे अपना प्रमुख चुना है, और इसलिए मैं अंतिम श्वास तक युद्धभूमि से पीछे नहीं हटूँगा। अपनी अंतिम श्वास और रक्त के अंतिम बूंद तक मैं माँ भारती की रक्षा करूंगा। हमारे राष्ट्र को तैमूर के अत्याचारों ने लहूलुहान किया है। योद्धाओं, उठो और क्षण भर भी विलंब न करो। शत्रुओं से युद्ध करो और उन्हे हमारी मातृभूमि से बाहर खदेड़ दो”।
महाबली जोगराज सिंह गुर्जर की इस हुंकार पर रामप्यारी गुर्जर ने अपने खड्ग को चूमा, और उनके साथ समस्त महिला सैनिकों ने अपने शस्त्रों को चूमते हुये युद्ध का उदघोष किया। रणभेरी बज उठी और शंख गूंज उठे। सभी योद्धाओं ने शपथ ली की वे किसी भी स्थिति में अपने सैन्य प्रमुख की आज्ञाओं की अवहेलना नहीं करेंगे, और वे तब तक नहीं बैठेंगे जब तक तैमूर और उसकी सेना को भारत भूमि से बाहर नहीं खदेड़ देते।
युद्ध में कम से कम योद्धा हताहत हों , इसलिए महापंचायत ने छापामार युद्ध की रणनीति अपनाई। रामप्यारी गुर्जर ने अपनी सेना की तीन टुकड़ियाँ बनाई। जहां एक ओर कुछ महिलाओं पर सैनिकों के लिए भोजन और शिविर की व्यवस्था करने का दायित्व था, तो वहीं कुछ महिलाओं ने युद्धभूमि में लड़ रहे योद्धाओं को आवश्यक शस्त्र और राशन का बीड़ा उठाया। इसके अलावा रामप्यारी गुर्जर ने महिलाओं की एक और टुकड़ी को शत्रु सेना के राशन पर धावा बोलने का निर्देश दिया, जिससे शत्रु के पास न केवल खाने की कमी होगी, अपितु धीरे धीरे उनका मनोबल भी टूटने लगे, उसी टुकड़ी के पास विश्राम करने को आए शत्रुओं पर धावा बोलने का भी भार था।
20000 महापंचायत योद्धाओं ने उस समय तैमूर की सेना पर हमला किया, जब वह दिल्ली से मेरठ हेतु निकलने ही वाला था, 9000 से ज़्यादा शत्रुओं को रात मे ही कुंभीपाक पहुंचा दिया गया। इससे पहले कि तैमूर की सेना एकत्रित हो पाती, सूर्योदय होते ही महापंचायत के योद्धा मानो अदृश्य हो गए।
क्रोध में विक्षिप्त सा हुआ तैमूर मेरठ की ओर निकल पड़े, परंतु यहाँ भी उसे निराशा ही हाथ लगी। जिस रास्ते से तैमूर मेरठ पर आक्रमण करने वाला था, वो पूरा मार्ग और उस पर स्थित सभी गाँव निर्जन पड़े थे। इससे तैमूर की सेना अधीर होने लगी, और इससे पहले वह कुछ समझ पाता, महापंचायत के योद्धाओं ने अनायास ही उनपर आक्रमण कर दिया। महापंचायत की इस वीर सेना ने शत्रुओं को संभलने का एक अवसर भी नहीं दिया। और रणनीति भी ऐसी थी कि तैमूर कुछ कर ही ना सका, दिन मे महाबली जोगराज सिंह गुर्जर के लड़ाके उसकी सेना पर आक्रमण कर देते, और यदि वे रात को कुछ क्षण विश्राम करने हेतु अपने शिविर जाते, तो रामप्यारी गुर्जर और अन्य वीरांगनाएँ उनके शिविरों पर आक्रमण कर देती। रामप्यारी की सेना का आक्रमण इतना सटीक और त्वरित होता था कि वे गाजर मूली की तरह काटे जाते थे और जो बचते थे वो रात रात भर ना सोने का कारण विक्षिप्त से हो जाते थे। महिलाओं के इस आक्रमण से तैमूर की सेना के अंदर युद्ध का मानो उत्साह ही क्षीण हो गया था।
अर्धविक्षिप्त, थके हारे और घायल सेना के साथ आखिरकार हताश होकर तैमूर और उसकी सेना मेरठ से हरिद्वार की ओर निकाल पड़ी। पर यहाँ तो मानो रुद्र के गण उनकी स्वयं प्रतीक्षा कर रहे थे। महापंचायत की सेना ने उनपर पुनः आनायास ही उनपर धावा बोल दिया, और इस बार तैमूर की सेना को मैदान छोड़कर भागने पर विवश होना पड़ा। इसी युद्ध में वीर हरवीर सिंह गुलिया ने सभी को चौंकाते हुये सीधा तैमूर पर धावा बोल दिया और अपने भाले से उसकी छाती छेद दी।
तैमूर के अंगरक्षक तुरंत हरवीर पर टूट पड़े, परंतु हरवीर तब तक अपना काम कर चुके थे। जहां हरवीर उस युद्धभूमि में ही वीरगति को प्राप्त हुये, तो तैमूर उस घाव से कभी नहीं उबर पाया, और अंततः सन 1405 में उसी घाव में बढ़ते संक्रमण के कारण उसकी मृत्यु हो गयी। जो आखिर तैमूर कुते की मोत मरा तैमूर लाखों की सेना के साथ भारत विजय के उद्देश्य से यहाँ आया था, वो महज कुछ हज़ार सैनिकों के साथ किसी तरह भारत से भाग पाया। रोचक बात तो यह है कि ईरानी इतिहासकार शरीफुद्दीन अली यजीदी द्वारा रचित ‘जफरनमा’ में इस युद्ध का उल्लेख भी किया गया है।
यह युद्ध कोई आम युद्ध नहीं था, अपितु अपने सम्मान, अपने संस्कृति की रक्षा हेतु किया गया एक धर्मयुद्ध था, जिसमें जाति , धर्म सबको पीछे छोडते हुये हमारे वीर योद्धाओं ने एक क्रूर आक्रांता को उसी की शैली में सबक सिखाया। पर इसे हमारी विडम्बना ही कहेंगे, कि इस युद्ध के किसी भी नायक का गुणगान तो बहुत दूर की बात, हमारे देशवासियों को इस ऐतिहासिक युद्ध के बारे में लेशमात्र भी ज्ञान नहीं होगा। रामप्यारी गुर्जर जैसी अनेकों वीर महिलाओं ने जिस तरह तैमूर को नाकों चने चबवाने पर विवश किया, वो अपने आप में असंख्य भारतीय महिलाओं हेतु किसी प्रेरणास्त्रोत से कम नहीं होगा।
ये कथा है अधर्म पर धर्म केए विजय की, ये कथा है देवी दुर्गा के संस्कृति की अनेक दुर्गाओं की, ये कथा है तैमूर लँगड़े की सेना की हमारे वीर वीरांगनाओं के हाथों अप्रत्याशित पराजय की।